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प्रधानाचार्य श्री मोहनलाल जी एक वार श्री सोहनलाल जी चैत्र शुक्ल पक्ष में पसरूर से व्यापार के कार्यवश लाहौर आए हुए थे। लाहौर उन दिनों संयुक्त पंजाब की राजधानी था। अतएव उसकी शोभा उन दिनों अत्यधिक बढ़ी चढ़ी थी। उन दिनों का लाहोर भारत के फैशन वाले नगरों मे सब से आगे था। उसके अनारकली वाजार की शोभा का वर्णन करना सुगम नहीं है। इस अनारकली वाज़ार मे जहां धनिक लोगों की अनेक वैभवशाली अट्टालिकाएं थीं, वहीं एक दीन अंधा भिक्षुक भी जा रहा था। उसके शिर मे अनेक फोड़े थे, जिनसे पीप निकलने के कारण उस पर सहस्रों मक्खियां बैठी हुई थी। उसके शरीर के वस्त्र अत्यधिक मलिन थे, जिन पर स्थान स्थान पर रक्त तथा पीप के धव्वे उस वातावरण को अपनी दुर्गन्ध से भर रहे थे। भिक्षुक के शरीर का रंग भी काला था। अपने एक हाथ मे खप्पर तथा दूसरे हाथ मे लाठी थामे हुए वह अत्यन्त करुणामय वचनों से अपनी दीनता प्रकट करते हुए भीख मांग रहा था। ___ इसी समय पीछे से एक बग्गी बड़ी तेजी से आई। उसके सामने से एक कृषक अपनी चैलगाड़ी मे अनाज लादे हुए चला
आ रहा था। बग्गी के कोचवान ने अंधे को हटाने के लिये घंटी बजाई, किन्तु अंधे ने अपना ध्यान अन्यत्र होने के कारण उसे नहीं सुना । वग्गी के घोड़े पूर्ण वेग से जा रहे थे । अतएव वह अंधे को धक्का देते हुए आगे निकल गए। अंधा उस धक्के को सहन करने में असमर्थ होकर वही गिर पड़ा और वग्गी उसके ऊपर से निकल गई। कोचवान ने पकड़े जाने के भय से पीछे फिर कर भी नहीं देखा और वह अपने अश्वों को और भी तेजी से हांकता हुआ वहां से दूर निकल गया।
अंधे भिक्षुक के शिर तथा पैरों में भारी चोट लगी और