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आदर्श करुणा
११३ नीलाम कर देते हैं। कभी कभी तो वह घर में इतना सामान भी नहीं छोड़ते कि ऋणी व्यक्ति अपने बाल बच्चों को शाम का भोजन भी खिला सके । इन निर्दय कुर्की वालों का हृदय सामने रोते हुए औरत बच्चों को देख कर भी नहीं पसीजता । उनको तो केवल अपने धन का ही ध्यान रहता है, फिर किसी के बाल बच्चे भले ही भूखे मर जावे। उनको तो अपना मूलधन मय ब्याज के मिलना ही चाहिये। ऐसे राक्षसों से बचाने के लिये ही दुर्गादास जी ने अपना सामान हमारे यहां रक्खा है। ___सोहनलाल-किन्तु मामी जी! उससे क्या बनेगा ? भले ही इस प्रकार वह अपने कुछ सामान को बचालें, किन्तु प्राणों से भी प्रिय उनका सम्मान तो नष्ट हो जावेगा। मामी जी ! यह तो सम्भव नहीं है कि आपने इस समाचार को जान कर उनके दुःख निवारण का कोई उपाय न किया हो।
मामी जी-बेटा ! तुम्हारा अनुमान ठीक है। मैंने अत्यन्त यत्न किया कि वह मुझसे धन ले कर अपना ऋण चुका दे, किन्तु उसने साफ इंकार कर दिया। मैंने यहां तक कहा कि यदि तुम दान रूप में नहीं लेना चाहते तो उधार ही ले लो और जब तुम चुकाने योग्य बनो उसे अपनी सुविधानुसार चुका देना। इस पर उसने उत्तर दिया कि "मैं एक का ऋण उतारने के लिए दूसरे का ऋण अपने सिर पर नहीं चढ़ाऊंगा"। उसने यह भी कहा कि "आपकी छत्र छाया तो प्रत्येक दीन व्यक्ति के लिए खुली ही रहती है, जिस दिन हमारा किसी प्रकार भी गुजारा नहीं चलेगा, उसी दिन हम आपकी छत्र छाया में आ जावेगे। और यह सामान जो आपके यहां रक्खा है वह साहूकार को धोखा देने के लिये नहीं रक्खा है, वरन् जिस समय मेरे बड़े चचेरे भाई बीमार थे उस समय उन्होंने यह