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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी ऐसा कह कर उन्होंने अपना स्वाभाविक सुन्दर देवरूप धारण कर उनकी बहुत प्रशंसा की । फिर वह उनकी सविनय वन्दना कर तथा उनको नमस्कार कर अपने स्थान को चले गए।
इधर सनत्कुमार मुनि ने अनेक वर्षों तक तप तथा संयम की आराधना करके केवल ज्ञान प्राप्त किया, जिससे वह सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी पद प्राप्त कर अन्त में मोक्ष गए ।।
श्री सोहनलाल जी के मुख से इस प्रकार की कथा सुन कर उनके चारों मित्र अत्यन्त प्रसन्न हुए और कहने लगे _ "सोहनलाल ! धन्य है तुमको ! सचमुच आज तो तुमने हम सब की आंखें खोल दीं। वास्तव में हमने अपने मनुष्य जन्म को व्यर्थ ही गंवाया।" इस पर सोहनलाल जी ने उत्तर दिया
"मित्रों! बीती ताहि विसार दे, आगे की सुध लेय।" मित्र-सोहनलाल जी ! हम सब एक साथ ही दुःखमोचिनी भगवती दीक्षा का वरण करेंगे।
सोहनलाल-मित्र ! कहना सहज है। किन्तु करके दिखलाना और फिर उसको पूर्णतया निसाना अत्यन्त कठिन है।
मित्र-सोहनलाल ! तुम हमारी यह प्रतिज्ञा स्मरण रखो कि अवसर आने पर हम अवश्य ही दीक्षा ग्रहण करेंगे। ___ सोहनलाल-यदि तुम दीक्षा ग्रहण करोगे तो तुम्हारे साथ ही मैं भी दीक्षा ले लूंगा।
इस प्रकार पांचों मित्र दीक्षा लेने का निश्चय करके उपाश्रय से उठ कर अपने अपने घर गए।