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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी का त्याग करना आवश्यक है। संसार भी एक संग है। वह अनंत कुसंगों तथा दुःखनाशक कारणों से भरा हुआ है। अतएव उसका भी त्याग करना ही चाहिये। जिस पुरुष या जाति के सहवास से आत्मोन्नति न होती हो उसका संग सत्संग नहीं है। जो आत्मा को उत्तम मार्ग में लगावे वही सत्संग है। जो कोई भी मोक्ष का मार्ग बतलावे वही सच्चा मित्र है। सर्वज्ञ देव द्वारा बतलाए शास्त्रों का एकाग्र हो कर निरंतर स्वाध्याय करना भी सत्संग है। सत्पुरुषों का समागम भी सत्संग है। जिस प्रकार मलिन वस्त्र को सावुन तथा जल से उज्वल किया जाता है उसी प्रकार शास्त्रों के अध्ययन तथा सत्पुरुषों के समागम से आत्मा की मलिनता दूर हो कर वह शुद्ध हो जाता है। संगीत, नृत्य तथा स्वादिष्ट भोजन आदि हमारे नित्य के कार्य हमको कितने ही प्रिय होने पर भी सत्संग न हो कर कुसंग हैं। सत्संग से प्राप्त हुआ एक वचन भी अमूल्य लाभ देता है। तत्वज्ञानी पुरुषों ने मुमुक्षु प्राणियों को यही उपदेश दिया है कि
'हे भव्य प्राणियों! सव संगो का परित्याग करके अपने अंदर के सभी विकारों से विरक्त हो कर एकांत सेवन करो।'
यदि इस वचन पर ध्यानपूर्वक विचार किया जावे तो इसमे भी सत्संग की ही प्रशंसा की गई है। आत्मस्वरूप में रमण करने वाले सभी सम स्वभाव वालों में से एक ही प्रकार को वर्तना का प्रवाह निकलता रहता है। वह एक स्वभाव होने के कारण एक दूसरे के सहवास से एकान्त सेवन करते हुए भी
आत्मकल्याण ही करते है। इस प्रकार के एकान्त सेवन की प्रवृत्ति केवल संत समागम से ही होती है। वैसे विषयी लोग भी विषय सेवन में एकान्तवृत्ति धारण करके समभाव तथा