________________
दीक्षा का निश्चय
१७७ समवृत्ति से विषय सेवन करते हैं। किन्तु एक तो उनका स्वभाव एक नहीं होता, दूसरे उन में परस्पर स्वार्थ बुद्धि तथा भ्रष्टाचार का भाव रहता है। फिर विषय सेवन से आत्मा के अपने स्वभाव में भी मलिनता आती है। अतएव विषय सेवन में न समानता है न निर्दोषिता है, वरन् आत्मिक पतन ही है। इसी प्रकार धर्म ध्यान में लीन रहने वाले अल्पारंभी पुरुष का सत्संग भी अत्यन्त प्रशंसनीय माना जाता है। जहां स्वार्थपरता तथा अत्याचार है वहां सत्संग नहीं हो सकता। सत्संग से
आत्मिक सुख तथा प्रानन्द की प्राप्ति होती है। जहां शास्त्रों के सुन्दर प्रश्नों का नित्य समाधान किया जाता हो, उत्तम ज्ञान ध्यान की कथाओं द्वारा सत्पुरुषों के चरित्र पर विचार किया जाता हो, जहां तत्व ज्ञान की तरंगों की लहरें चलती रहें, जहां सर्वज्ञ के कथन पर विवेचन किया जाता हो, ऐसे सत्सग का मिलना अत्यन्त कठिन है। जिस प्रकार पृथ्वी पर कोई भी तैर नहीं सकता इसी प्रकार सत्संग से कोई भी नहीं डूबता । सत्संग के प्रभाव से लोहे का भी सुवर्ण बन जाता है । सत्संग के प्रभाव से ही राजा श्रेणिक, रोहा चोर तथा दृढ़प्रहारी अजुनमाली का भी उद्धार हो गया। सत्संग की महिमा का जितना भी वर्णन किया जावे थोड़ा है। यहां सत्संग की महिमा को प्रकट करने वाला एक जीता जागता उदाहरण उपस्थित किया जाता है। इस से पता चलता है कि सच्चे भावों से केवल आत्मकल्याण के लिये पवित्र आत्मा द्वारा की गई ज्ञान ध्यान की चर्चा कितनी प्रभावशाली होती है। ___ एक दिन पसरूर नगर में प्रात.काल के समय श्री सोहनलाल जी ने उपाश्रय मे सामायिक अंगीकार करके प्रथम स्वाध्याय के बोलों पर विचार किया। फिर उन्होंने अपने मधुर कंठ से