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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी युवती के यह वचन सुन कर सोहनलाल जी को अत्यधिक आश्चय हुआ और वह अपने हारों को उठा कर जाने लगे। किन्तु उसी समय उन्होंने देखा कि दरवाजा बाहिर से बन्द है। तब युवती ने उनसे कहा ___ "जव से मैं ने आपकी प्रशंसा सुनी तथा आपको देखा है तभी से मैं अपने मन, वचन तथा काय को आपके चरणों में समर्पित कर चुकी हूं। आप मेरी चिर अभिलाषा को पूर्ण कर मेरे हृदय के ताप को दूर करें।"
इस पर सोहनलाल जी ने उत्तर दिया।
"वहिन । तनिक सोच विचार तो करो। जिस सतीत्व की रक्षा महारानी धारिणी तथा अनेक सतियों ने अपने प्राण दे कर भी की है ऐसे अमूल्य रत्न का नुम तनिक से क्षणिक सुख के लिए नाश करने पर क्यों तुली बैठी हो ? देवी ! सावधान हो जाओ। यह रत्न नष्ट हो जाने पर फिर आपको किसी भी मूल्य पर प्राप्त नहीं हो सकता। भोगों को भोगने से कसी भी शक्ति नहीं बढ़ती, वरन् अशक्ति तथा अशान्ति ही वरावर बढ़ती जाती है।"
युवती-यह सारी बाते मैं जानती हूं, किन्तु मेरे मन में यह बड़ी भारी अभिलाषा है कि मैं आपके द्वारा आप के जैसा पुत्र प्राप्त करू। अतएव आप मेरी अभिलापा पूर्ण कर मुझे अपने जैसे पुत्र का दान दें।
सोहनलाल-तुम पुत्र अविलम्ब चाहती हो या विलम्ब से?
सोहनलाल जी के इस प्रश्न से युवती मन में विचार करने लगी कि "अब मेरे अस्त्र का इस पर प्रभाव पड़ रहा है। भला