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दीनों की सहायता
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सुख नहीं मिलता, जितना सुख सच्चे सेवक को सेवा का अवसर मिलने पर होता है। महान् पुरुषों का हृदय जहां कर्तव्य पालन • करने के लिए वज्र से भी कठोर हो जाता है, वहां पीड़ितों की सेवा करने तथा दुःखियों के दुःख को दूर करने के लिए मक्खन से भी मुलायम हो जाता है। उनकी भावना सदा ही इस प्रकार की रहती है कि ___'अपने दु.ख को हंस हंस झेलू, पर दु:ख सहा न जाए।'
नीचे की पंक्तियों में एक ऐसी ही घटना का वर्णन किया जाता है
वर्षा ऋतु को प्रारम्भ हुए अभी अधिक समय नहीं हुआ है। चिरकाल से तप्त भूमि की तपिश अभी अच्छी तरह से नहीं बुझ पाई है। वृक्ष नूतन स्नान करके तथा मनोज्ञ श्राहार पाकर प्रफुल्लित हो कर पथिकों का स्वागत कर रहे हैं। ऐसे समय में एक अश्वारोही अपने अश्व को तेजी से चलाता हुआ प्रकृति देवी के प्राकृतिक सौंदर्य के सम्बन्ध में विचार करता हुआ चला जा रहा है। उस के सुन्दर मुख पर तेज की आभा है, जो उसके चिन्ताकुल होने के कारण पूर्णतया विकसित नहीं हो रही है। वह अपने मन मे विचार कर रहा है कि वर्षा ऋतु तथा मात हृदय दोनों में कितनी समानता है। वह सोच रहा है कि "जिस प्रकार वर्षाऋतु पृथ्वी के ताप को शान्त कर देती है उसी प्रकार माता भी पुत्र के पीड़ित आत्मा को अपने स्नेह से सींच कर पल भर मे शान्त कर देती है। जिस प्रकार वर्षा के आगमन से वनस्पति प्रफुल्लित हो जाते हैं, उसी प्रकार पुत्र माता के
आगमन से प्रसन्न हो जाता है। मुझे अपनी माता के रोग का समाचार मिला है और मैं अश्व पर बैठ कर उसे तेजी से भगाता हुआ पसरूर से चला आ रहा हूँ, किन्तु मेरे मन मे ' माता के दर्शन की कितनी अधिक उत्कठा है।"