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मित्रों का सुधार
१२३ करते, जिससे उन्हें स्नान करने की आवश्यकता पड़े।
मित्र-सोहनलाल ! यह ठीक है कि शरीर महा अपवित्र है, किन्तु यदि मुनिराज स्नान करले तो इसमे क्या हानि है ?
सोहनलाल-मित्र ! यह तो एक स्थूल वुद्धि का प्रश्न है। प्रथम बात तो यह है कि स्नान एक शृङ्गार है। दूसरी बात यह है कि स्नान से कामाग्नि प्रदीप्त होती है, इन्द्रियां सतेज होती हैं तथा मन सांसारिक पदार्थों की ओर जाता है, जिस से साधु का मन चंचल हो जाता है, शरीर में ममत्व बढ़ता है और व्रत भंग होता है। तीसरे स्नान में समय का अपव्यय होता है। चौथी बात यह है कि स्नान करने में जल स्थित जीवों की हिंसा होती है । इस प्रकार स्नान करने से आत्मा कर्मपरमाणुओं से और भी अधिक मलिन होता है। इसलिये साधु के लिये स्नान पवित्रता का कारण नहीं, वरन् अपवित्रता का कारण है। इसी लिये जैन साधु आत्मा को उज्वल बनाने के लिये तो यत्न करते हैं, किन्तु शरीर को उज्वल बनाने की ओर लेशमात्र भी ध्यान नहीं देते। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध सनातन धर्मी ग्रन्थ पाण्डवगीता में भी एक सुन्दर श्लोक भीष्म जी ने युधिष्ठिर से कहा
आत्मानदी संयमपुण्यतीर्था
सत्योदका शीलतटा दयोर्मिः। तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र
न वारिणा शुद्धयति चान्तरात्मा । यह श्रात्मा रूपी नदी संयम तथा पुण्य का पवित्र तीर्थ है। इसमें सत्य रूपी जल भरा हुश्रा है। शील रूपी इसके दोनों किनारे हैं। इस में दया की लहरें हैं। हे युधिष्ठिर ! तू ऐसी प्रात्मा रूपी नदी में -