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स्वधर्मीवत्सलता
निःसंकिए निःकंखिए निबितिगिच्छा अमूढदिहिए। उवबूहे थिरिकरणे वत्सलपभावणा अट्ठ ॥
पन्नवणी सूत्र। भगवान् महावीर स्वामी ने संसार के भव्य जीवों के कल्याणार्थ अमूल्य उपदेश देते हुए कहा है कि हे प्राणी ! सम्यक्त्व के विना आत्मा का कल्याण न आज तक किसी ने किया है, न कोई कर रहा है और न कोई करेगा। अतएव सम्यक्त्व को समझना तथा समझ कर उसे ग्रहण करना अत्यंत आवश्यक है।
सम्यक्त्व के पाठ मुख्य अंग हैं
१. जिनेन्द्र भगवान के वचन में शंका न करने को निःशांकित श्रग कहते हैं।
२. धर्म से संसार सुख के भोगों की आकांक्षा न करने को निःकांक्षित अंग कहते हैं।
३. ऐसे कार्य करना जिससे प्रायश्चित्त श्रादि से आत्मा की चिकित्सा करनी पड़े। उसे निर्विचिकित्सा अंग कहा जाता है।