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सम्यक्त्व प्राप्ति
८६ . उपस्थित हुए। सोहनलाल जी के साथ उनके वाल मित्रों ने भी
आकर आचार्य श्री के चरणों में अपना अपना मस्तक झुका दिया। इस के पश्चात् उन्होंने पूज्य श्री के सन्मुख बैठ कर हाथ जोड़ कर उन से कहा
"गुरु देव ! हम ने सोहनलाल से सुना है कि सम्यक्त्व सुख का दाता तथा मिथ्यात्व दु.ख का कारण है। क्या आप कृपा कर हम अवोध बालकों को उसे विस्तारपूर्वक वतला कर , समझाने की कृपा करेगे ? जिस से हम आप के उपदेश को सुन कर मिथ्यात्व को त्याग कर तथा सम्यक्त्व को अंगीकार कर अपने आत्मा का कल्याण कर सकें।
इस पर आचार्य महाराज ने उत्तर दिया
"क्यों नहीं ? हम तुमको अवश्य बतलावेंगे। तुम ध्यान देकर सुनो। यह बात स्मरण रखो कि यथार्थ तथा सत्य वस्तुतत्व का ग्रहण करना सम्यक्त्व है तथा अयथार्थ एवं विपरीत का ग्रहण करना मिथ्यात्व है। अब हम तुमको प्रथम मिथ्यात्व का - लक्षण विस्तारपूर्वक समझाते हैं।
विपरीत देव, विपरीत गुरु तथा विपरीत धर्म को यथार्थ देव, यथार्थ गुरु तथा यथार्थ धर्म मानना मिथ्यात्व है । अर्थात् जिसमें देव के गुण न हों ऐसे कुदेव में देव की बुद्धि रखना, जिसमें गुरु के गुण न हों उसमें उसी प्रकार गुरु की बुद्धि रखना जिस प्रकार नीम को आम मान लेना तथा जीव हिंसा
आदि पाप कर्मों में धर्म की बुद्धि रखना उसी प्रकार मिथ्यात्व है जिस प्रकार सर्प को फूलों की माला समझना । इसके विपरीत यथार्थ देव, यथार्थ गुरु तथा यथार्थ धर्म मे श्रद्धा रखना . सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व में तीन दोषों से बचना आवश्यक है।
संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय ।