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पितृ शिक्षा
पिता-व्यवहार की शिक्षा तथा धर्म शिक्षा इन दोनों में बड़ा भारी अन्त्तर है। व्यवहार शिक्षा बिल्लौर तथा कांच के टुकड़े के समान है, किन्तु धर्म शिक्षा अमूल्य कौस्तुभमणि के समान है।
सोहनलाल-पिताजी ! आपका कथन यथार्थ हैं। धर्म शिक्षा वास्तव में व्यवहार शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण होती है। आपने मुझे अनेक बार संसार के अनन्त दुःखों के विषय में बतलाया है। उनसे पार पाने से लिये तो केवल धर्म शिक्षा ही सहायक हो सकती हैं। पिताजी! आप मुझे कृपा कर यह बतलावें कि वह श्रेयस्कर धर्म शिक्षा किस प्रकार के गुरु से मिल सकती है ?
पिता-धर्म गुरु तीन प्रकार के होते हैं--
एक पत्थर के समान, दूसरे कागज के समान तथा तीसरे काठ के समान।
सोहन-पिताजी, कृपा कर मुझे तीनों के लक्षण पृथक् २ बतलाइये।
पिता-जो गुरु अविवेकी, दंभी, धूर्त, गुप्त रूप से पाप कार्य में लगे रहने वाला, अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये खोटी शिक्षा देने वाला, त्यागी होते हुए भी गृहस्थ के समान कार्य करने वाला, आपस में फूट डलवा कर बड़ा बनने वाला तथा स्वयं को ही गुणज्ञ तथा धर्म का ठेकेदार समझता हो उस गुरु को पत्थर के समान कहते हैं। ऐसा गुरु न तो अपना कल्याण कर सकता है और न शिष्य का । वह संसार रूपी समुद्र में स्वयं डूबते हुए अपने शिष्यों तथा सहायकों को भी ले डूबते हैं।