________________
सत्य में निष्ठा
असत्य बोल दें तो वह आयु पर्यंत उस पद के लिये अयोग्य माने जाते हैं। सारांश यह है कि जिस जीव ने सत्य की पूर्णतया आराधना कर ली उसका आत्मकल्याण स्वयमेव हो जाता है। भर्तृहरि ने भी यही कहा है कि
सत्यं चेत्तपसा किं । जो सत्यवादी है उसे अन्य किसी तप की पावश्यकता नहीं है।
जैनियों के आभ्यन्तर छ तपों में भी सत्य को पृथक तप माना गया है। संसार के सभी कार्य सत्य के आधार पर चल रहे हैं। जिसके जीवन में सत्य नहीं होगा वह कभी भी महापुरुष नहीं बन सकता । (गमों तथा इतिहास का अध्ययन करने से तो यहां तक का पता चलता है कि सभी महापुरुषों का जीवन बाल्यावस्था से ही सत्य के रंग में रंगा होता है। हमारे चरित्रनायक की बाल्यावस्था से भी इसी बात का समर्थन होता है । उन्हें बाल्यावस्था में ही सत्य से अत्यधिक प्रेम था। सत्य के प्रति उनका प्रेम उनकी बाल्यावस्था से लेकर उनके आत्मा में अन्त तक चिरस्थायी रहा, वरन् आयु के साथ साथ उसमें दिन प्रति दिन वृद्धि ही होती गई।
श्री सोहनलाल जी का अक्षरारम्भ हुए कठिनता से एक वर्ष बीता था कि संवत् १९१४ को आश्विन शुक्ल पक्ष में एक दिन सोहनलाल जी अपने बाल सखाओं के साथ कुछ खेल खेल रहे थे। खेल खेल में गेंद की आवश्यकता पड़ी। सोहनलाल ने अपने बाल सखाओं से कहा___ "तुम तनिक बाहिर ठहरो। मैं घर के अन्दर से गेद लेकर अभी आता हूं।" । अस्तु वह बाल सखाओं को बाहिर खड़ा करके घर में गेद लाने चले गए। सोहनलालजी बालक तो थे ही, अतएव बाल सुलभ