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सत्य में निष्ठा कैप्टेन से मिला था, जिसे उन्होंने सेना सहित किसी भारी श्रापत्ति में पड़ जाने पर सहायता दी थी। उसी से प्रसन्न होकर उस कैप्टेन ने शाह मथुरादासजी को वह शीशा दिया था। शाह मथुरादासजी ने दर्पण टूटने के विषय में घर के सभी नौकर चाकरों से पूछा कि दर्पण किसने तोड़ा है। किन्तु बेचारे नौकर क्या उत्तर देते ? उन्हें तो उसके विषय में कुछ भी पता नहीं था। उन्होंने शाह मथुगदास जी से केवल यही कहा कि इस विषय में उनको कुछ भी पता नहीं । उन्होंने दर्पण के विषय में सब प्रकार से अपनी अनभिज्ञता प्रकट की। यद्यपि शाह मथुरादास जी का स्वभाव अत्यन्त हँसमुख था और वह सदा प्रसन्न रहा करते थे, किन्तु नौकरों के उस उत्तर से उनके नित्य प्रसन्न रहने वाले मुख पर तनिक क्रोध की झलक आ गई, जिससे उनका मुखमण्डल क्रोध से लाल हो गया। उनके नेत्र भी क्रोध से लाल हो गए, जिन्हें देखकर घर के नौकर चाकर सब थर थर कांपने लगे और वह किंकर्तव्यविमूढ़ होकर दीनताभरी दृष्टि से मथुरादासजी की ओर देखने लगे।
शाह मथुरादासजी नौकरों से शीशे के विषय में पूछताछ कर ही रहे थे कि तब तक बाहिर से सोहनलालजी ने भी आकर कमरे में प्रवेश किया । इस दृश्य को देखकर उस बुद्धिमान बालक को यह समझने मे तनिक भी देर नहीं लगी कि यह सारा कांड उसी दर्पण के कारण हो रहा है। सोहनलालजी मन में सोचने लगे "कि पिताजी इस समय क्रोध मे हैं। यदि मैं इन से इस समय सही सही घटना कहूंगा तो निश्चय से वह मेरे ऊपर अधिक कुपित होंगे और यह भी सम्भव हैं कि क्रोध के वेग में मेरे दो चार थप्पड़ भी लगा दें। किन्तु यदि मैं चुप रहा तो न