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अद्भ त न्याय भी अधिक गवाहों द्वारा बढ़िया सबूत देकर कागज का पेट भर देता है वही जीतता है। आज देश तथा समाज के लिये एक ही शैली से काम लिया जाता है कि
'सचाई गई भाड़ में।' वास्तव में यह दशा अत्यन्त भयंकर है। इस समय अत्याचारों के कारण चारों ओर त्राहि त्राहि मची हुई है। प्राचीन काल में न्यायालयों की शैली यह थी कि वह गुप्तचरों द्वारा असलियत का पता लगाया करते थे। कभी कभी तो न्यायाधीश लोग स्वयं रूप बदल कर जनता में जाकर असलियत का पता लगा कर न्याय किया करते थे। फिर जब वह न्याय करते थे तो वह ठीक ठीक तथा वास्तविक न्याय होता था। किन्तु आजकल केवल न्यायालय के कागजों के आधार पर ही निर्णय किया जाता है, जिन्हें प्राय झूठे गवाहों द्वारा तय्यार किया जाता है। अनेक बार तो केवल वादी तथा प्रतिवादी के कथन मात्र से न्याय कर दिया जाता है। उस समय यह विचार नहीं किया जाता कि वादी अथवा प्रतिवादी तो केवल अपने स्वार्थ की बात ही कहेंगे।
न्यायालयों की एक शैली यह भी है कि पेशियों की तारीखों को बार बार हटा कर निर्धनों का शिकार किया जाता है। इससे अच्छों अच्छों की आर्थिक दशा अत्यन्त शोचनीय हो जाती है
और उनको फिर अनिच्छापूर्वक अत्याचारियों के हाथों पिसना पड़ता है। पेशियां बारबार डलवा कर साधनसम्पन्न अत्याचारी साम, दाम, दंड तथा भेद द्वारा निर्धन व्यक्ति के सबूत को तोड़ देता है। इन्हीं कारणों से आज कल न्यायालयों में न्याय न होकर न्याय के नाम पर प्राय: अन्याय ही होता है। आज सबल के द्वारा पीड़ित दरिद्री न्यायालय में जाने का साहस
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