________________
प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी "हे प्राणी ! यदि तुझे अनन्त सुख प्राप्त करने की इच्छा है तो मिथ्यात्व को त्याग कर सम्यक्त्व को अंगीकर कर।" ।
बुद्धि पाने का यही फल है कि मनुप्य तत्वों के ऊपर , सम्यक तया विचार करे। यह प्राय. देखने में आता है कि तत्व से अनभिज्ञ नर नारी अपने अज्ञान के कारण वाह्य आडम्बर से आकर्षित होकर आत्म कल्याण के सच्चे सिद्धान्त को त्याग कर मिथ्यात्व में फंस जाते है। वह एक ओर तो आत्म कल्याण की क्रिया करते हैं तथा दूसरी ओर कपोलकल्पित देवी देवताओं, माता, मसानी, मंदिर, मस्जिद, पीर, पैगम्बर आदि को देव मानते हुए ऐसे व्यक्तियो को गुरु मान कर उनकी सेवा करते हैं, जो सदाचारहीन, सांसारिक काम भोगों में आसक्त, कामी, लम्पट तथा रात दिन मांस मदिरा आदि दुर्व्यसनों का सेवन करते रहते हैं। मूर्ख लोग ऐसे देवताओं तथा गुरुओं की सेवा मे भी यात्मकल्याण समझ कर अपने तथा दूसरे के आत्मा के पतन का कारण बनते हैं। ऐसे व्यक्तियों को ही शास्त्रों में मिश्र दृष्टि कहा गया है। वास्तव में ऐसे व्यक्ति का कहीं ठिकाना नहीं होता। वह दो नावों मे पैर रखने वाले के समान धर्म रूपी नदी को कभी भी पार नहीं कर सकता। इस प्रकार के व्यक्ति चांदी और सीप, रेत तथा खांड, सोना तथा पीतल और हाथी एवं गधा इन सब को एक सा ही समझते हैं। किन्तु वास्तव में यह उनकी बुद्धि का भ्रम है। ऐसा कभी नहीं हुआ। सत्य सदा सत्य ही रहता है। जो व्यक्ति इस बात को समझता है वह कभी भी भूलभुलैयां मे फंस कर नहीं भटकता । इसी बात को ध्यान में रखते हुए यहां प्राचार्य सम्राट् श्री सोहनलाल जी महाराज की सम्यक्त्व प्राप्ति की घटना का वर्णन किया जाता है । इस वर्णन को पढ़कर इस बात