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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी की इच्छा नहीं रखते । जब वह बोलते हैं तो सुनने वाले का हृदय उनके प्रति श्रद्धा से परिपूर्ण हो जाता है। वह किसी का भी न तो अपमान करते हैं और न उपहास । वह इस प्रकार की सुन्दर नीतिमय शिक्षा देते हैं, जिसे हम भली प्रकार समझ सकें।
पिता-वेटा, क्या तुम यह बतला सकते हो कि तुम वहां किस लिए जाते हो ?
सोहन-क्यों नही पिताजी! आप मुझे वहां विद्वान् बनाने तथा व्यवहार नीति का सम्यक प्रकार से ज्ञान कराने के लिये भेजते हैं।
पिता---यदि तुम्हारे शिक्षक सदाचाररहित होते तो क्या होता ?
सोहन-तब तो बहुत ही बुरा होता। हम व्यवहारकुशल तथा सदाचारी बनने के स्थान पर अविवेकी, सदाचारहीन, उदण्ड तथा उच्छृखल बनते।
पिता-अच्छा वेटा ! इस दृष्टांत से हम तुमको एक उत्तम शिक्षा देते हैं । यह बात स्मरण रखो कि जिस प्रकार संसार में सफलता प्राप्त करने के लिये व्यवहार नीति का ज्ञान आवश्यक है उसी प्रकार अगले जन्म में उत्तम गति प्राप्त करने के लिये धर्म तत्व तथा धर्म नीति का ज्ञान प्राप्त करना भी परम आवश्यक है । जिम प्रकार सदाचार की शिक्षा से व्यवहार नीति का ज्ञान होता है, उसी प्रकार परभव श्रेयस्कर धर्म नीति का सम्यक् ज्ञान सर्वश्रेष्ठ गुरु से ही प्राप्त होता है।
सोहन-पिता जी ! इन दोनों में कितना अन्तर है ?