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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी ज्ञान प्राप्त हो जावे । सभी बालक प्रथम अपने पिता को सर्वज्ञ समझ कर उनसे अनेक प्रकार के ऐसे प्रश्न किया करते हैं, जिनसे उनका ज्ञान बढ़े। किन्तु प्रायः पिता या तो ज्ञान सम्पन्न नहीं होते अथवा यदि वह पढ़े लिखे भी होते हैं तो अपने निजी कार्यों के कारण बच्चों के प्रश्नों की ओर ध्यान नहीं देते। प्रायः पिता तो अनपढ़ अथवा कम पढ़े ही होते हैं और वह अपने पुत्र के प्रश्नों पर अपनी अज्ञता को छिपाते हुए उसे मिड़क दिया करते हैं। बहुत से विद्वान् पिता भी अपने बच्चों के साथ वार्तालाप करने को समय का अपव्यय समझ कर उसे धमका कर चुप करा देते हैं। इस से बच्चे के आत्मा को भारी धक्का लगता है और अपने प्रश्नों का उत्तर न पाने से क्रमशः उसकी स्मरण शक्ति भी क्षीण हो जाती है तथा उसकी भावी उन्नति रुक जाती है। किन्तु शास्त्रज्ञ बुद्धिमान् पिता अपने मंद बुद्धि बालक को भी सरल भाषा में नई नई बातें बतला कर उसकी स्मरण शक्ति बढ़ाते रहते हैं। किन्तु इस कार्य के लिये यह आवश्यक है कि पिता अपने पुत्र को सुधारने के पूर्व प्रथम स्वयं सुधरे।
नीचे की पंक्तियों में एक ऐसे ही पिता के अपने पुत्र के साथ संवाद को दिया जाता है, जिसने अपने पुत्र के मन में अत्यन्त छोटी आयु में ही ऐसी शिक्षा हृदयंगम कर दी थी, जिससे बाद में वह बालक आगे चलकर एक महान् पुरुष बन कर अमर कीर्ति का सम्पादन कर सका । वास्तव मे जिस पितृ शिक्षा का वर्णन इस ग्रंथ के पिछले पृष्ठों मे किया जा चुका है, उसका यही वास्तविक रूप था।
लगभग एक प्रहर रात्रि जा चुकी है। लोग बाग अपने अपने कार्यों से निवृत्त होकर अपने अपने घरों को जा रहे हैं। जैन