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विद्यारम्भ संपइसुहकारण कम्मवियारण,
भवसमुद्दतारणतरणं । जिणवाणि णमस्समि सत्तपयस्समि,
सग्गमोक्खसंगमकरणं ।। जो सम्पत्ति तथा सुख की कारण, कर्मों को नष्ट करने वाली, संसार रूपी समुद्र से तार कर इस योग्य बना देती है कि वह औरों को भी तार सके, स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त कराने वाली सत्व की प्रकाशक उस जिनवाणी को मैं नमस्कार करता हूं।
आत्मा अनन्त ज्ञान का भंडार है, किन्तु इसका वह ज्ञान ज्ञानावरणी नामक कर्म के आवरण से ढका रहता है। इस संसार में आकर यह जीव जो कुछ धन, सम्पत्ति, बल, सामर्थ्य
आदि सत् तथा असत् उपायों द्वारा प्राप्त करता है वह सब शरीर छूटने पर यहीं पड़े रह जाते हैं। दूसरे जन्म में साथ नहीं जाते । किन्तु इस जन्म में प्राप्त की हुई विद्या अगले जन्म में साथ जाती है और प्रकट होने का निमित्त प्राप्त होते ही प्रकट हो जाती है। इसी लिये विद्वानों ने विद्या प्राप्त करने को धन प्राप्त करने से कम महत्वपूर्ण नहीं माना है। जैसा कि पञ्चतंत्र में कहा गया है