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मात शिक्षा पर सहर्ष उनका आदर सत्कार करवा कर उसको अपने हाथ से उनको आहार आदि दिलवाती थी। इससे सोहनलाल साधुओं के चरणारविन्द में एकाग्र चित्त से सविनय बैठ कर ज्ञान आदि सीखता था। इस प्रकार लक्ष्मी देवी ने अपने पुत्र को सभी कार्यों में पूर्ण चतुर बना दिया था।
लक्ष्मी देवी स्वयं भी बालक को धर्मात्मा पुरुषों तथा धर्म पर बलिदान होने वाली सतियों की कथाएं सुनाया करती थीं। कभी कभी वह देश, जाति तथा समाज पर सर्वस्व न्योछावर करने वाले कर्मवीर नौनिहालों की कथाएं सुनाती तथा कभी कभी वह उसको पुण्य-पाप का फल दर्शाने वाली कथाओं को सरस तथा सरल बालभाषा में सुना सुना कर बालक की ज्ञान पिपासा को जागृत किया करती थीं।
इन्हीं सब कारणों से बालक सोहनलाल की प्रतिभा शक्ति ऐसी विशाल बन गई थी कि उसने सात वर्ष की आयु के पूर्व ही सामायिक के सम्पूर्ण पाठ, प्रतिक्रमण, पच्चीस बोल तथा दोधामि आदि स्तवनों को कण्ठ याद करके सभी साधु साध्वियों तथा सम्पूर्ण श्रावक वर्ग को आश्चर्य में डाल दिया था। इससे वह सभी अपने २ हृदय में बालक की प्रशंसा किया करते थे।
बालक सोहनलाल की बाल क्रीड़ाओं में भी धार्मिक वृत्ति ही प्रकट होती थी। वह पांच वर्ष की आयु में ही अपने मुख पर साधुओं के समान मुखर्वस्त्रिका बांध कर तथा सभी मुहल्ले के बालकों को एकत्रित कर उनके 'मुख पर भी 'मुखवस्त्रिका बंधवाते थे। फिर स्वयं साधुओं के समान एक चौकी पर बैठ कर माता से सुनी हुई कथाएं-उन बालकों को सुनाया करते थे। सोहनलाल के मुख से उन कथाओं को सुन कर बालक अत्यंत प्रसन्न हो कर अपने अपने घर जाकर अपनी अपनी माताओं