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जन्म
'देखें, तीन दिन के अन्दर किस वस्तु की प्राप्ति होती है।'
किन्तु उसके ठीक दूसरे दिन ही रविवार माघ बदि १ संवत् १६०६ विक्रमी को अनुकूल प्रहस्थिति में आपकी धर्मपत्नी लक्ष्मीदेवी ने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया। उस समय आकाश में ग्रहों के गण ने उत्तम योग बनाया हुआ था। पुत्र जन्म होते ही सारे परिवार में हर्ष की लहर दौड़ गई। चारों ओर
आनन्द छा गया। वास्तव में संसार में माताएं तो अनेक होती है, किन्तु लक्ष्मीदेवी के समान कितनी माताएं हैं, जिन्हें आचार्य सम्राट् की माता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हो। साधारण पुत्रों को तो अनेक माताएं जन्म देती हैं, किन्तु आचार्य सम्राट जैसे महान पुत्र को जन्म देने वाली माता केवल आप ही हैं। एक कवि ने कहा है कि
माता जने तो भक्त जन, या दाता या शूर । नहि तर बिरथा बापड़ी, काहि गमावे नूर ॥ हे माता तु या तो भक्त पुत्र या दानी पुत्र अथवा शूरवीर पुत्र को ही जन्म दे। यदि तू ऐसा नहीं करती तो हे पावती, तू अपने स्वास्थ्य तथा सौंदर्य को व्यर्थ क्यों नष्ट करती है ? . वास्तव में आज माना लक्ष्मीदेवी ने अनुपम लाल पाया, जैन समाज ने धर्म दिवाकर पाया, साधुओं ने भावी साधु सरताज पाया, धर्म ने अाधार पाया, अज्ञानियों ने ज्ञान का पवित्र झरना पाया, अशान्त आत्मा ने शान्ति का स्थान पाया, निधनों ने बन्धु पाया, रोगपीड़ितों ने धन्वन्तरी पाया, अनाथों ने नाथ पाया, पथभ्रष्ट पथिकों ने प्रकाश पाया, मोक्षमार्ग के पथिकों ने पथप्रदर्शक तथा एक योग्य नेता पाया। इस प्रकार आज सारे नगर में प्रसन्नता ही प्रसन्नता छा गई ।