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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी पति ने मन्दालसा को गर्मवती देखकर कहा कि "मैं इस संतान को उत्तम क्षात्रधर्म युक्त वीर पुत्र बनाऊंगा।"
मन्दालसा को अपने पति के इस कथन में अभिमान की गन्ध आई। उसने अपने पति से कहा कि___ "नहीं, मैं तो इस संतान को संसार त्यागी ब्राह्मण बनाऊंगी।" इस पर उसके पति ने कहा
"नहीं, संतान वैसी ही बनेगी, जैसी मैं चाहूंगा।" इसपर मन्दालसा बोली
"नहीं, संतान मेरी इच्छा के अनुसार बनेगी।" इस प्रकार दोनों पति-पत्नी अपने २ निश्चय की एक दूसरे को सूचना देकर चुप हो गए।
मन्दालसा ने उसी दिन से त्यागी महात्माओं के चरित्र पढ़ना तथा ज्ञान वैराग्य में समय व्यतीत करना आरम्भ किया। जब नौ मास बीतने पर मन्दालसा के पुत्र हुआ तो उसने उसको और भी त्यागमय जीवन तथा ज्ञान ध्यान की लोरियां देनी प्रारम्भ की। वह अपने पुत्र से प्रायः कहा करती थीशुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरञ्जनोऽसि,
संसारमायापरिवर्जितोऽसि । संसारस्वप्नं तज मोहनिद्रां,
मन्दालसा वाचमुवाच पुत्रम् ।। हे पुत्र ! तू शुद्ध है, तू स्वभाव से ही ज्ञानवान् है, तू अलिप्त है और संसार की माया से रहित है। अतएव तू इस संसार को स्वप्न के समान छोड़कर मोह निदा से जाग जा।