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प्रथम अधिकार
[ १३ अर्थः-अथवा पैर फैलाकर, कमर पर (दोनों) हाथ रखकर उत्तरमख स्थित पुरुष का जैसा आकार बनता है वैसे ही आकार को धारण करने वाला यह लोक ( षद्रव्यों की अपेक्षा ) उत्पाद, व्यय और ध्र व स्वभाव की विविधता से युक्त, अथवा ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक के भेद को त्रिविधता से युक्त नित्य ही स्थित है ।।५४-५५।।
अधोवेत्रासनाकारो मध्येऽयं झल्लरीसमः । - मृदङ्गासवशश्चोर्वे विधेति तस्य संस्थितिः ।।५६।। अर्थः-अधोलोक का आकार वेत्रासन सदृश, मध्यलोक का झल्लरी सदृश और ऊर्ध्वलोक का प्राकार मृदंग के सदृश है, इस प्रकार लोक की संस्थिति (आकार) तीन प्रकार कहा गया है ।। ५६।।
प्रामूलादूर्ध्वपर्यन्तं लोकोऽयमुन्नतो मतः । विचित्राकार प्राप्तः स्याच्चतुर्दशरज्जुभिः ॥५५॥
अर्थः-प्राप्त को जानने बालों के द्वारा नाना प्रकार के आकारों को धारण करने वाले इस लोक को नीचे से ऊर्ध्वलोक पर्यन्त की ऊँचाई चौदह राजू कही गई है ।।५७॥
अब सात श्लोकों द्वारा लोक के भेद एवं उनका प्रमाण कहा जाता है :
मामलान्मध्यलोकान्तमाम्नाता योन्नतिजनः। सप्तरज्जुप्रमारणास्या धोलोकस्य जिनागमे ।।५।।
अर्थ:-जिनेन्द्र भगवानके द्वारा जिनागम में प्रादि-मूल से मध्यलोक के अन्त तक की जो सात राजू प्रमाण अाकाशोन्नति कही गई है वही अधोलोक को ऊँचाई है। अर्थात् अधोलोक की ऊँचाई सात राजू प्रमारग है ।।५८।।
मध्यलोकाद् बुधैर्जेया ब्रह्मकल्पान्तमुच्छ्रितिः ।
अस्योचलोकभागस्य सार्वरज्जुत्रयप्रमा ।।५।। अर्थ:--विद्वानों के द्वारा मध्यलोक से ब्रह्मकल्प के अन्त तक की जो साढे तीन राज प्रमाण ऊँचाई ज्ञात की गई है वही इस अवंलोक के एक भाग की ऊंचाई है । अर्थात् मध्य लोक से ब्रह्मलोक तक के ऊर्ध्वलोक की ऊंचाई ३३ राजू प्रमाण है ॥५६॥
ब्रह्मलोकासतोऽप्यूचं यावग्लोकानमस्तकम् । उत्सेधोऽस्यागमे प्रोक्तः सार्धविरज्जुसन्मितः ।।६०।।