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प्रथम अधिकार ताशाकारलोकोऽयं साधैंकमुरजाकृतिः । किन्तु स्यान्सुरजो वृत्तो लोकः कोणचतुर्मयः ।।५३॥
अर्थः--अर्धमुरजाकार अधोलोक के मस्तक पर पूर्ण मुरज को स्थापित करने से जैसा प्राकार बनता है वैसा ही अर्थात् डेढ मुरज के प्राकार वाला यह लोक है। मुरज (मृदङ्ग) गोल होती है किन्तु लोक चार कोणों से युक्त है ।।५२-५३||
विशेषार्थ:-श्लोक में लोक का प्राकार डेढमृदङ्गाकार कहा है, उसका भाव यह है कि जैसे अर्घमुरज नीचे चौड़ी और ऊपर सकरी होती है, उसी प्रकार अधोलोक नीचे सात राजू चौड़ा और क्रम से घटसा हुमा मध्य लोक में एक राजू चौड़ा रह गया है। इसके ऊपर एक मुरजाकार ऊर्ध्वलोक कहा गया है, इसका भाव भी यह है कि जैसे मुरज नीचे ऊपर सकरी और बीच में चौड़ी होती है उसी प्रकार कलबोक भी नीचे मध्यलोक में एक राजू चौड़ा है इसके ऊपर क्रम से बढ़ता हुआ बीच में पांच राजू चौड़ा हो जाता है और पुनः क्रम से घटता हुआ अन्त में एक राजू चौड़ा रह जाता है ।
यहां लोक को मृदङ्गाकार कहा है उसका अर्थ यह नहीं है कि लोक मृदङ्ग के सदृश बीच में पोला भी है, किन्तु वह तो ध्वजामों के समूह सदृश भरा हुआ है। (त्रिलोकसार गा. ६) लोकाकाश मृदङ्ग के सदृश गोल नहीं है किन्तु नीचे सात राजू लम्बा और सात राजू चौड़ा है, तथा बीच में मध्यलोक पर पूर्व-पश्चिम एक राजू, उत्तर-दक्षिण सात राज है, ऊर्बलोक भी मध्य में पूर्व-पश्चिम पांच राजू, उत्तर-दक्षिण सात राजू तथा अन्त में एक राजू और सात राजू है।
मृदंगाकार कहने का यह भी भाव नहीं है कि लोक मृदंग के सस्श गोल है। यदि लोक को मृदंग समान गोल माना जाय तो उसकी प्राकृति निम्न प्रकार होगो तथा उसका सम्पूर्ण धनफल
६.२६१ धनराजू अधोलोक का + ५८,६५० घनराजू ऊर्ध्वलोक का) - १६४४५, धनराजू प्रमाण प्रार होगा जो ३४३ घन राजू के संख्यास भाग प्रमाण होता है । (ध.पु. ४ पृ. १२-२२)
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_ जिनेन्द्र भगवान ने लोक का आकार चौकोर कहा है क्योंकि चौकोर लोक का घनफल ७ राजू ( श्रेणी ) के घनस्वरूप ३४३ घनराजू प्रमाण है। चतुरस्राकार लोक की आकृति :