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प्रथम अधिकार यत्प्राक पूर्वमुनीन्द्राधे-विश्व सिद्धान्तवेदिभिः । सद्धिभिर्जपत्सारं प्रोक्त सिद्धान्तमञ्जसा ॥४१॥ तदुर्गमार्थगम्भीर-मागमं विश्वगोचरम् । कथं स्वल्पधिया वक्तुं मया शक्यं मनोहरम् ॥४२॥ अथवा प्रारमुनीन्द्राणां प्रणामाजितपुण्यतः।। स्तोकं सारं प्रवक्ष्यामि सिद्धान्तं विश्वसूचकम् ।।४३।। निजशक्त्या मुवाभ्यस्य त्रैलोक्यसार बीपकम् ।
सुगर्म बालबोधायान्यान पन्थानागमोदभवान् ।।४४।। अर्थ:--समस्त सिद्धान्त शास्त्रों के ज्ञाता एवं विशिष्ट ज्ञानी पूर्व मुनिराजों ने पहिले त्रिलोकसार नामक सिद्धान्तग्रन्थ की रचना की है सो बह ग्रन्थ अति दुर्गम अर्थवाला एवं गम्भीर है अतः मुझ अल्पज्ञ द्वारा वह जैसे का तेसा कैसे जाना जा सकता है - कहा जा सकता है ? परन्तु फिर भी पूर्व मुनिराजों को किये गये नमस्कार जन्य पुण्य के प्रभाव से ( उसका ) थोड़ा सा सार लेकर विश्वसूचक सिद्धान्त का कथन करूंगा। पहिले मैं पागमों से जिनका सम्बन्ध है ऐसे उन ग्रंथों का अपनी शक्ति के अनुसार प्रफुल्लित मन से अभ्यास करूंगा बाद में जिस प्रकार बालजनों को सुगम पड़े उस रूप से "लोक्यसारदीपक" का कथन करूंगा ।।४१-४४।। अब लोक के स्वरूप को कहने की प्रतिज्ञा करते हैं
तस्यादौ कीर्तयिष्यामि त्रैलोक्यस्थितिमूजिताम् ।
तदाकारं समासेन भव्याः ! शृणुत सिद्धये ।।४६।। अर्थ :- सर्व प्रथम अर्थात् सिद्धान्तसार दीपक की आदि में मैं तीनों लोकों को वास्तविक स्थिति का और किर संक्षेप से उनके प्राकारों का वर्णन करूंगा, अतः हे भव्य मनो! सिद्धि के लिये तुम पहिले उसे सावधान होकर सुनो ॥४५।। लोकाकाश और अलोकाकाश की स्थिति एवं लक्षरण कहते हैं :
सर्वोऽनन्तप्रदेशोऽस्त्याकाशः सर्वज्ञगोचरः । नित्यस्तामध्यभागे स्याल्लोकाकाशस्त्रिधात्मकः ॥४६॥ 'प्रसंख्यातप्रदेशोऽसौ वातत्रितयवेष्टितः। उडुवभाति खे पूर्णः षड्ब्रयैश्चेतनेतरैः॥४७॥
१. 'सुहमेव होह कालो तत्तो सुहमो य होइ खित्तो य ।
अंगम सेकी मित्तोमपिणी प्रसंखिज्जा' ।