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सिद्धान्तसार दीपक नस्वेति जिनतन्मूर्ति-सिद्धसिद्धान्तसद्गुरून् । विश्वविघ्नहरान् स्वेष्टान जगम्मांगल्यकारिणः ॥३५॥ सिहान्य स्यालय स्याम्यहितानद्धये ।
वक्ष्ये ग्रंथं जगन्नेत्रं सिद्धान्तसारदीपकम् ॥३६॥ अर्थ:-इस ग्रंथ निर्माण में आने वाले समस्त विघ्नों की शान्ति एवं जगत में मंगल प्रालि के उद्देश्य से मैं जिनेन्द्र, जिनेन्द्रप्रतिमा सिद्ध, सिद्धान्त एवं सद्गुरु इन सबको नमस्कार करके जगत् के नेत्र स्वरूप इस सिद्धांतसार दीपक ग्रंथ की स्वपर के उपकारार्थ रचना करूंगा ॥३५-३६।। प्रागे जिनागम की महिमा प्रकट करते हैं
श्रुतेन येन भव्यानां करस्थामलकोपमम् ।
लोक्यं निस्तुषं भाति जानं च वर्धतेतराम् ॥३७॥ संवेगादिगुणः सार्धं रागोऽज्ञानं प्रणश्यति । तदागमं जगच्चा -यमत्रोवितं बुधैः ।।३।। यतः प्रोक्त सुसाधूनां जिनविश्वार्थदर्शने । सवागममहाचक्षु-धर्मतत्वार्थदीपकम् ॥३६॥ तेनागमसुनेत्रण विनान्धा इव देहिनः ।
सचक्षुषोऽपि जानन्ति न किञ्चिरच हिताहितम् ॥४०॥ अर्थः- इस सिद्धांतसार ग्रंथके सुनने-पढ़नेसे भव्यात्माओं को यह त्रिलोक हथेली में रखे हुये । प्रविले की तरह प्रतीत होने लगता है और उनके तत्सम्बन्धी ज्ञान की वृद्धि भी हो जाती है, तथा संबेगादिक गुणोंकी प्राप्ति हो जाने से उनके अज्ञान एवं रागद्वषादिरूप विकारों का भी विनाश हो जाता है, इसी कारण बुद्धिमानों ने प्रागम को "जगत्चक्षु" कहा है और इसीलिये जिनेन्द्र देवने साधुओं को ऐसा उपदेश दिया है कि यदि तुम्हें सम्पुर्ण पदार्थों को जानना है तो सर्व प्रथम जीवादिक तत्त्वों, छह द्रव्यों और नौ पदार्थों को प्रकाशित करने वाले इस निर्दोष पागम रूप महाचक्षु का अबलम्वन करो, क्योंकि यही एक अति उत्तम नेत्र है। जिन प्राणियों के पास यह आगम रूप चक्षु नहीं है वे उसके बिना नेत्रों के रहते हुए भी, अन्धे के समान हैं, क्योंकि इसके प्रभाव में हिताहित का थोड़ा सा भी ज्ञान नहीं हो सकता है ।।३७-४०।।
मागे अथकर्ता अपनी लघुता प्रकट करते हैं