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सिद्धान्तसार दीपक अर्थ:-मुक्ति प्राप्ति के उद्देश्य से अपनी सदबुद्धि रूपी जहाज के द्वारा जो स्वयं अंग, पूर्व और प्रकीर्णक रूप समुद्र को पार कर देते हैं तथा अन्य मुनिजनों को भी पार कराते हैं, जो रत्नत्रय से विभूषित और अज्ञानान्धकार के विनाशक हैं ऐसे उन पूज्य पाठकों (उपाध्यायों) के चरणकमलों को मैं ज्ञानप्राप्ति के निमित्त नमस्कार करता हूं. उनकी स्तुति करता हूं ।।२३-२४॥ __ अब अात्म साधना में लीन साधु परमेष्ठी का स्तवन करते हैं
त्रिकाले दुष्करं योगं वृष्टिशीतोष्णसंकुले । 'साधयन्ति स्वसिद्धय ये महान्तं भीरुमोतिदम् ॥२५॥ साधयस्ते मया वन्द्या महाघोरतपोन्विताः ।
वनाचो ध्यानसंलीना मे भवन्तु स्वशक्तये ।।२६।। अर्थ:-जो वर्षा, शीत और ग्रीष्म इन तीन ऋतुओं में वर्षा, ठण्ड और गर्मी की बाधानों को सहन करते हुए निर्जन वनादि में स्थित होकर प्रात्मसिद्धि के उद्देश्य से दुष्कर योग की साधना करते हैं ऐसे उन घोर तपस्वी साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ, वे मुझे प्रात्मशक्ति की प्राप्ति में निमित्त कारण बनें ।।२५-२६॥ आगे चौबीस तीर्थंकरों के वृषभसेन आदि गणधरों की स्तुति करते हैं
श्रीमवृषभसेनाधा गौतमप्रमुखाश्च ये। समस्तविचतुशान-भूषितागणनायकाः !॥२७॥ महाकविगुणः पूरः पूर्वागरचने क्षमाः।
मया बन्धा स्तुता दद्युस्ते मे स्वगुणसन्मतीः ॥२८॥ अर्थ:--वृषभसेन प्रादि और गौतम आदि समस्त गणधर जो कि सब प्रकार की ऋषियों एवं चार ज्ञानों से विभूषित हुये हैं, महाकवियों के श्रेष्ठ गुण वाले एवं अंगों और पूर्वो-आगों की रचना करने में निपुण हुये हैं मैं उनकी बन्दना एवं स्तुति करता हूँ, वे मुझे प्रात्मगुणों की प्राप्ति में कारणभूत सन्मति-उत्तम बुद्धि प्रदान करें ।।२७-२८।। अब जिनमुखोद्भूत स्याद्वाद वाणी रूप सरस्वती का स्तवन करते हैं---
यस्याः प्रसादतो मेऽभूद् सख़ुद्धिः श्रुतभूषिता । रागासिगा पदार्थज्ञा सद्ग्रन्थकरणेक्षमा ।।२।।
१. दह दंसरणस्स भेया पंचेव य हंति णाणस्स । तेरह विहस्स चरणं अहवीसा हुँति साहूणे ।।