________________
४ ]
सिद्धान्तसार दीपक
शेषा ये तीर्थकर्तारो महान्तो धर्मचक्रिणः । विश्वाय धर्मराजा वा त्रिजगद्धितकारिणः || १४ || लोकोत्तमाः शरण्याश्व विश्वमाङ्गल्यदायिनः । तेषां पादाम्बुजानू' स्तौमि जगद्वन्द्यांस्तदृद्धये ॥ १५ ॥
अर्थ:- शेष जो और तीर्थंकर हैं वे भी थन्तरङ्ग बहिरङ्ग लक्ष्मी के अधिपति होने से महान् हैं, धर्मचक्र के प्रवर्तक हैं। विश्वपूज्य एवं धर्म के सञ्चालक हैं, जो लोक में उत्तम एवं शररणभूत हैं, विश्व के पापहर्ता और सुख के दाता हैं ऐसे तीन लोकों के हितकारक उन समस्त तीर्थंकरों के जगद्वन्द नीय चरणों की मैं उनकी ऋद्धि प्राप्ति के निमित्त स्तुति करता है ॥ १४-१५।।
अब विदेह क्षेत्र के विद्यमान सीमन्धर आदि तीर्थंकरों का स्तवन करते हैंattoriतृतीयेषु ये श्रीसीमन्धरादयः ।
वृता जनाधीशा मुक्तिमार्गे च निस्तुषम् ॥ १६॥
प्रवर्तयन्ति सद्धमं सर्वाङ्गार्थादिभाषणैः । वर्तमानाः सुराच्यस्ति स्तुता मे सन्तु सिद्धये ॥ १७ ॥
अर्थ:र्थ:- इस समय अढाई द्वीप में गरणधरात्रिकों के द्वारा पूजनीय विद्यमान सोमन्धर आदि तीर्थंकर हैं जो कि निष्कलङ्क मुक्ति मार्ग का प्रवर्तन कर रहे हैं, सम्पूर्ण ( १२ ) अंगों एवं सात तत्व नो पदार्थ आदि के उपदेशों द्वारा सद्धर्म का प्रचार कर रहे हैं तथा देव जिनकी पूजा करते रहते हैं, मैं सिद्धि प्राप्ति की कामना से उनकी स्तुति करता है ।।१६-१७।।
तीन काल सम्बन्धी चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करते हैं
प्रन्ये तीर्थकृतो वा ये कालत्रितय सम्भवाः ।
ते मया संस्तुता बन्धा मे प्रवद्युनिजान् गुणान् ॥ १८ ॥
श्रर्थ:- इसी प्रकार त्रिकालवर्ती और भी जो तीर्थंकर हैं मैं उन सबकी वन्दना करता हूँ । स्तुति करता हूँ । मुझे अपने सम्यग्दर्शनादि सद्गुणों को प्रदान करें । श्रर्थात् जो गुण उनमें प्रगट हो | वे चुके हैं बे गुण मेरे में भी प्रगट हो जावें ऐसी भावना से मैं उनकी बन्दना और स्तुति करता है || १८ ||
१. वन्दे अ०
२. सीमंधरः, युग्मंधरा, बाहु: सुबाहूः जम्बूद्वीपे । सुजातः स्वयंप्रभः, वृषभाननः ग्रनन्तवीर्थः, सौरप्रभः सुविशाल:, वज्रधरः चन्द्राननः एवं घातको खपडे । चन्द्रवाह, भुजंगनाथ, ईश्वरः, नेमिप्रभः वीरमेन, महाभद्रा, देवयशा: प्रतिवीर्यः पुष्करार्धी एवं २० ।
"