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सृष्टिखण्ड]
सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य .
अपनी माता और व्याघ्र दोनोंके आगे खड़ा हो गया। आजसे तुम मेरी बहिन हुई और यह तुम्हारा पुत्र मेरा पुत्रको आया देख तथा सामने खड़े हुए मृत्युरूप बाघपर भानजा हो गया। शुभे! तुमने अपने आचरणसे मुझ
महान् पापीको यह उपदेश दिया है कि सत्यपर ही सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है। सत्यके ही आधारपर धर्म टिका हुआ है। कल्याणी ! तृण और लताओंसहित भूमिके वे प्रदेश धन्य हैं, जहाँ तुम निवास करती हो। जो तुम्हारा दूध पीते हैं, वे धन्य है, कृतार्थ हैं, उन्होंने ही पुण्य किया है और उन्होंने ही जन्मका फल पाया है। देवताओंने मेरे सामने यह आदर्श रखा है; गौओंमें ऐसा सत्य है, यह देखकर अब मुझे अपने जीवनसे अरुचि हो गयी। अब मैं वह कर्म करुगा, जिसके द्वारा पापसे छुटकारा पा जाऊँ। अबतक मैंने हजारों जीवोंको मारा
और खाया है। मैं महान् पापी, दुराचारी, निर्दयी और हत्यारा हूँ। पता नहीं, ऐसा दारुण कर्म करके मुझे किन लोकोंमें जाना पड़ेगा। बहिन ! इस समय मुझे अपने
पापोंसे शुद्ध होनेके लिये जैसी तपस्या करनी चाहिये, Aay
उसे संक्षेपमें बताओ; क्योंकि अब विस्तारपूर्वक सुननेका दृष्टि डालकर उस गौने कहा-'मृगराज ! मैं सत्यधर्मका समय नहीं है। पालन करती हुई तुम्हारे पास आ गयी हूँ अब मेरे मांससे गाय बोली-भाई बाघ ! विद्वान् पुरुष तुम इच्छानुसार अपनी तृप्ति करो।
सत्ययुगमें तपकी प्रशंसा करते हैं और त्रेतामें ज्ञान तथा व्याघ्र बोला-गाय ! तुम बड़ी सत्यवादिनी उसके सहायक कर्मकी। द्वापरमें यज्ञोंको ही उत्तम निकली। कल्याणी ! तुम्हारा स्वागत है। सत्यका आश्रय बतलाते हैं, किन्तु कलियुगमें एकमात्र दान ही श्रेष्ठ माना लेनेवाले प्राणियोंका कभी कोई अमङ्गल नहीं होता। गया है। सम्पूर्ण दानों में एक ही दान सर्वोत्तम है। वह तुमने लौटनेके लिये जो पहले सत्यपूर्वक शपथ की थी, है-सम्पूर्ण भूतोंको अभय-दान। इससे बढ़कर दूसरा उसे सुनकर मुझे बड़ा कौतूहल हुआ था कि यह जाकर कोई दान नहीं है। जो समस्त चराचर प्राणियोंको फिर कैसे लौटेगी। तुम्हारे सत्यकी परीक्षाके लिये ही मैंने अभय-दान देता है, वह सब प्रकारके भयसे मुक्त होकर पुनः तुम्हें भेज दिया था। अन्यथा मेरे पास आकर तुम परब्रह्मको प्राप्त होता है। अहिंसाके समान न कोई दान जीती-जागती कैसे लौट सकती थी। मेरा वह कौतूहल है, न कोई तपस्या । जैसे हाथीके पदचिह्नमें अन्य सभी पूरा हुआ। मैं तुम्हारे भीतर सत्य खोज रहा था, वह मुझे प्राणियोंके पदचिह्न समा जाते हैं, उसी प्रकार अहिंसाके मिल गया। इस सत्यके प्रभावसे मैंने तुम्हें छोड़ दिया; द्वारा सभी धर्म प्राप्त हो जाते हैं।* योग एक ऐसा वृक्ष
* तपः कृते प्रशंसन्ति त्रेतायां ज्ञानकर्म च । द्वापर यशमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे । पर्वेषामेव दानानामिदमेबैकमुत्तमम् । अभयं सर्वभूतानां नास्ति दानमतः परम् ॥ चराचराणां भूतानामभयं यः प्रयच्छति । स सर्वभयसत्यक्तः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ नास्त्यहिंसासमं दानं नात्यहिंसासमं तपः । यथा हस्तिपदे ह्यन्यत्पदं सर्व प्रलीयते ॥
सर्व धर्मास्तथा व्याघ्र प्रतीवन्ते ह्यहिंसया।
(१८।४३७-४४१)