Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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कि मानव-मन में पीड़ा के समय स्वाभाविक रूप से किसी ऐसी दिव्य शक्ति के प्रति श्रद्धा और प्रपत्ति की भावना होती है, जिसके कारण अपने भीतर आत्मविश्वास को उत्पन्न कर सके। ____पं. सुखलाल के शब्दों में- 'मानव-मन की प्रपत्ति या शरणागति की यह भावना मूल में असत्य तो नहीं कही जा सकती। उनकी इस अपेक्षा को ठेस न पहुँचे तथा तर्क व बुद्धिवाद के साथ ईश्वरवादी अवधारणा का समन्वय भी हो, इसलिए हरिभद्र ने ईश्वर-कर्त्तत्ववाद की अवधारणा को अपने ढंग से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है।
आचार्य हरिभद्र का कथन है कि जिस व्यक्ति ने विचारों की निर्मलता के फलस्वरूप आध्यात्मिक विकास की सर्वोच्च भूमिका को प्राप्त कर लिया हो, वह असाधारण आत्मा है और वही सिद्ध ईश्वर या पुरुषोत्तम है। उस आदर्श स्वरूप को प्राप्त करने के कारण कर्ता तथा भक्ति का विषय होने के कारण उपास्य है। साथ ही, हरिभद्र यह भी स्वीकार करते है कि प्रत्येक आत्मा मूलतः अपने शुद्ध रूप में परमात्मा है व अपने भविष्य का स्रष्टा भी है। इस अपेक्षा से वह ईश्वर भी है और कर्ता भी
है।
इस प्रकार ईश्वर-कर्तृत्ववाद भी सही है।
हरिभद्र सांख्यों के प्रकृतिवाद की भी समीक्षा करते हैं, परन्तु वे प्रकृति को जैन-दर्शन में स्वीकृत कर्मप्रवृत्ति के रूप में देखते हैं। वे लिखते हैं -
"सत्य न्याय की दृष्टि से प्रकृति कर्म-प्रकृति ही है और इस रूप में प्रकृतिवाद भी उचित है, क्योंकि उसके वक्ता कपिल दिव्य पुरुष एवं महामुनि हैं।"51
"शास्त्रवार्ता-समुच्चय" में आचार्य हरिभद्र ने बौद्धों के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद की भी समीक्षा की है, परन्तु उनकी दृष्टि इनमें निहित सत्य को भी देखने का प्रयत्न करती है। वे इस विषय पर कथन करते हैं कि महामुनि और अर्हत् बुद्ध लक्ष्यविहीन होकर किसी भी सिद्धान्त का उपदेश नहीं करते हैं। उन्होंने क्षणिकवाद का उपदेश हमारे भीतर पनप रही पदार्थों के प्रति आसक्ति के निवारण के
48 समदर्शी आचार्य हरिभद्रसूरि, पृ. 55 49 ततश्चेश्वर कर्तृत्ववादोऽयं युज्यते परम्। सम्यग्न्यायाविरोधेन यथाऽऽ हुः शुद्ध बुद्धतः।। ईश्वरः परमात्मैव तदुक्तव्रत सेवनाम्। यतो मुक्तिस्तवस्तस्याः कर्ता स्याद्गुणभावतः ।। तदनासेवनादेव यत्संसारोऽपि तत्त्वतः। तेन तस्यापि कर्तृत्वं कल्प्यानं न दुष्यति।।-शास्त्रवार्ता-समुच्चय- 203-205 50 परमैश्वर्य युक्तत्वान्मतः आत्मैव चेश्वरः। स च कर्तेति निर्दोषः कर्तृवादो व्यवस्थितः।।-शास्त्रवार्ता-समुच्चय- 207 51 प्रकृति चापि सन्यायात्कर्म प्रकृति मेव हि। एवं प्रकृतिवादोऽपि विज्ञेयः सत्य एव हि।। कपिलोक्त त्वतश्चैव दिव्यो हि स महामुनि।।- -शास्त्रवार्ता-समुच्चय- 232, 237
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