Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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के लिए छन्दना-सामाचारी का पालन आवश्यक है। इसके अतिरिक्त दूसरे साधु की मण्डली में ही एकाशन करते हैं, इसलिए उनके पास पहले से लाया हुआ भोजन न होने से उन्हें छन्दना-सामाचारी का पालन आवश्यक नहीं होता है।
यहाँ प्रश्न उपस्थित किया गया है कि आत्मलब्धिक आदि साधुओं को छन्दना-सामाचारी का पालन क्यों करना होता है ? इसका समाधान आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत साधुसामाचारीविधि पंचाशक की छत्तीसवीं गाथा में प्रस्तुत किया है।
दूसरे साधुओं की ज्ञानादि गुणों की वृद्धि होती हो, तो आत्मलब्धिक आदि साधुओं को यह छूट है कि वे अपनी आवश्यकता से अधिक आहार लाएं। निमन्त्रण करके देने और लेने से दोनों को अभीष्ट-फल की प्राप्ति होती है, किन्तु वे दोनों अति गम्भीर और धैर्यवान् होने चाहिए।
छन्दना सामाचारी के पालन करने वालों को अप्रतिपाति-लाभ की प्राप्ति होती है, अर्थात् कर्म-निर्जरा अत्यधिक होती है, जिसका वर्णन आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के अर्न्तगत् साधुसामाचारीविधि-पंचाशक की सैंतीसवीं गाथा में किया
है।
छन्दना करने से कोई साधु आहार ग्रहण करे, तो भी निर्जरा होती है और ग्रहण न करें, तो भी निर्जरा होती है। इसी प्रकार, छन्दना न करने से कोई साधु आहार ले, तो भी कर्मबन्ध होता है और न ले, तो भी। इसमें भाव कारण है। शास्त्रानुसार, शुद्धभाव निर्जरा का कारण है और अशुद्ध भावबन्ध का कारण है, इसलिए छन्दना करने से साधु आहार ले या न लें, लेकिन यदि उसका भाव शास्त्रानुसार शुद्ध है, तो निर्जरा होगी और अशुद्ध है, तो बन्ध होगा। 9. निमन्त्रण-सामाचारी- आहार हेतु जाने के पूर्व साधुओं को निवेदन करना कि मैं आहार लेने जा रहा हूँ, आपके लिए भी लेकर आऊंगा, अथवा कोई साधु सेवा आदि में लगे हों, तो भी निमन्त्रण दें कि मैं आप लोगों के लिए आहार ले आता हूँ। इस
3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/37 - पृ. - 214
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