Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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करना चाहिए। इस तप को पूर्ण करने में पन्द्रह पक्ष लगते हैं, तथा उपवास की संख्या एक सौ बीस है।
इस तरह, कई प्रकार के तपों का वर्णन सुनकर शंका की गई कि इस प्रकार के तपों का वर्णन आगम में न होने के कारण ये तप कैसे मान्य हो सकते हैं ? प्रस्तुत शंका का समाधान आचार्य हरिभद्र पंचाशक - प्रकरण के अन्तर्गत तपोविधि - पंचाशक की उनचालीसवीं गाथा में करते हैं। वे कहते हैंआगम दो विभागों में विभक्त है- अंग-आगम और अंग - बाह्य । आगम इन दो भेदों में विभक्त होकर अनेक प्रकार के हैं तथा अनेक प्रकार के अर्थोंवाले शब्दों से युक्त हैं, जीवों के लिए उपकारक हैं, कष, छेद और ताप से सुवर्ण की तरह विशुद्ध हैं । वस्तुतः, जिनवचन में ऐसा क्या है, जो जीवों के हित में नहीं है ? अर्थात् इसमें जो भी तप हैं, वह सब जीवों के लिए हितकर हैं, इसलिए उपर्युक्त तपों का उल्लेख आगम में उपलब्ध न होने पर भी ये सभी तप आगम-सम्मत हैं- ऐसा समझना चाहिए। ये तप वैसे भी लोगों के लिए हितकारी हैं और जो भी हितकारी है, वह आगमसम्मत है । दर्शन - ज्ञान - चारित्र - तप का स्वरूप- दर्शन, ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति के लिए इस तप की आराधना करना चाहिए। इस तप की विधि आचार्य हरिभद्र तपोविधि - पंचाशक की चालीसवीं गाथा में बताते हैं
यह तप अट्टम (तेला) के द्वारा किया जाता है। तीन अट्टम के द्वारा यह तप पूर्ण होता है । यह तप सभी गुणों का साधक है, विशुद्ध है और शुभ - प्रशस्त है।
दर्शन - तप के अट्ठम से दर्शन की शुद्धि होती है एवं निर्मल बोधि की प्राप्ति
होती है।
होती है।
चारित्र - तप के अट्ठम से चारित्र - गुण की शुद्धि होती है और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति होती है ।
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ज्ञान-तप के अट्ठम से ज्ञान की शुद्धि होती है और कैवल्य - ज्ञान की प्राप्ति
पंचाशक- प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 19 / 39 - पृ. - 348 पंचाशक- प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 19/40 - पृ. 348
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