Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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परमभूषण-तप की भांति ही आयतिजनक-तप में भी एक-एक दिन के अन्तर से बत्तीस निर्दोष आयम्बिल करना चाहिए। सभी धर्म-कार्यों में शक्ति को नहीं छिपाने वाले के लिए यह तप विशेष रूप से लाभकारी होता है। सौभाग्यकल्पवृक्ष-तप- सौभाग्य अर्थात् सद्भाग्य, कल्पवृक्ष अर्थात् इच्छित वस्तु की प्राप्ति। जो तप सौभाग्य प्राप्त करवाने में कल्पवृक्ष की तरह है, वह सौभाग्यकल्पवृक्ष-तप कहलाता है। आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत तपोविधि-पंचाशक की पैंतीसवीं एवं छत्तीसवीं गाथाओं में प्रस्तुत तप की विधि का वर्णित करते हैं
इस तप के अन्तर्गत चैत्र महीने में एक-एक दिन के अन्तर से उपवास-तप की आराधना करना और पारणे के दिन सुपात्र में दान देकर विधिपूर्वक सरस भोजन ग्रहण करना सौभाग्यकल्पवृक्ष-तप है।
आचार्य हरिभद्र ने इस तप की पूर्णाहूति पर शक्ति–अनुसार दान देने और अनेक प्रकार के फलों से झुकी हुई अनेक शाखाओं वाले सुन्दर एवं परिपूर्ण कल्पवृक्ष (स्वर्ण) सुनहरे अक्षरों आदि से निर्मित करने, अथवा रचना करने का निर्देष दिया है। मुग्ध जीवों को इससे लाभ - आचार्य हरिभद्र तपोविधि-पंचाशक की सैंतीसवीं गाथा में' इन तपों के लाभ की चर्चा करते हुए कहते हैं
इन सभी तपों की आराधना लौकिक (भौतिक) आकांक्षाओं के प्रति आकर्षित जीवों को इष्ट फल प्रदान करती है और ये तप नाम के अनुसार सार्थक हैं। बुद्धिमानों को इसे अच्छी तरह से समझना चाहिए।
___ आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत तपोविधि-पंचाशक की अड़तीसवीं गाथा में इन्द्रियजय, कषायजय और योगशुद्धितप आदि विविध तपों का उल्लेख किया है, जो इहलोक एवं परलोक के सुख के कारण हैं तथा परम्परा से मोक्ष के कारण हैं, अतः इन तपों का विवरण समझकर साधु-साध्वी के करने योग्य तप
3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 19/35, 36 - पृ. -346 'पंचाशक-प्रकरण -आचार्य हरिभद्रसूरि-19/37 - पृ. -347 - पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 19/38 - पृ. - 347
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