Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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आवश्यक
तप-विधि- जिस विधि से शरीर की रक्त, रस, मज्जा आदि सप्त धातुओं की शुद्धि होती है और कर्मों की निर्जरा होती है, उसे तप कहा जाता है।' तप को देहासक्ति और कषायों के कृश करने का साधन कहा गया है।
तत्त्वार्थ-सूत्र के अनुसार, मलिन वृत्तियों को निर्मूल करने के निमित्त अपेक्षित बल की साधना के लिए जो आत्मदमन किया जाता है, वह तप है।
अणगार धर्माऽमृत के अनुसार, मन, इन्द्रियों और शरीर के तपने से, अर्थात् इनका सम्यक् रूप से निवारण करने से सम्यग्दर्शन आदि को प्रकट करने के लिए इच्छा के निरोध को तप कहते हैं।'
तत्त्वार्थ-सूत्र के अनुसार निर्जरा और संवर ही तप है। की मलयगिरि के अनुसार, तापयति अष्ट प्रकारं कर्म इति तपः- अर्थात्, जो आठ प्रकार के कर्मों को जलाए-तपाए, वह तप है।'
सर्वार्थसिद्धि के अनुसार, 'कर्म क्षयार्थ तप्यते इति तपः- अर्थात्, कर्मों के क्षय के लिए जो तपता है, वह तप है।'
प्रशमरति के अनुसार, कर्मणा तापनात् तपः- अर्थात् कर्मों को जो तपाए-जलाए, नष्ट करे उसे तप कहा जाता है।'
तत्त्वार्थ-वर्तिका के अनुसार- जैन-परम्परा में तपक्रिया का मुख्य लक्ष्य कर्मक्षय है तथा अभ्युदय की प्राप्ति आनुषंगिक (गौण) है।
डॉ. हुकमीचन्द भारिल्ल के अनुसार- समस्त तपों में, चाहे वे बाह्यतप हो या अन्तरंग, एक शुद्धोपयोगरूप वीतराग-भाव की प्रधानता है। इच्छाओं के निरोधरूप शुद्धोपयोगरूपी वीतराग-भाव ही सच्चा तप है।
'तपरत्नाकर - चांदमल सिपाणी – पृ. - 7
तत्त्वार्थ-सूत्र - पं. सुखलालजी - पृ. - 210 'धर्माऽमृत (अनगार)- पं. आशाधर-7/2 * तत्त्वार्थ-सूत्र – आ. उमास्वाति-9/3 - पृ..-7
आवश्यक-मलयगिरी – खण्ड-2 - अध्याय-1 1सर्वार्थसिद्धि - आ. पूज्यपाद-9/6, 797 पृ. - 323 प्रशमरति - आ. भद्रबाहु - भाग-1 - पृ. - 378
तत्त्वार्थ-वर्तिका - भट्टअकलंकदेव -9/3/1-5- पृ. -593 'धर्म के दशलक्षण - डॉ. हुकुमचंद मारिल्ल -98/101
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