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सम्यग्ज्ञान की चर्चा पंचाशक में नहीं है अतः हरिभद्र के अन्य ग्रन्थों के आधार पर इसका संक्षेप में ही निर्देश किया गया है। सम्यक्चारित्र के सामान्य स्वरूप की चर्चा के बाद उसके दो भेदों का उल्लेख किया गया है, जिनकी विशेष चर्चा इस शोधप्रबन्ध के द्वितीय एवं तृतीय अध्यायों में क्रमशः की गई है। जहाँ तक सम्यक्तप का प्रश्न है, उस पर भी एक स्वतंत्र पंचम अध्याय की योजना की गई है। पुनः तृतीय अध्याय में श्रावक आचार के अन्तर्गत – (1) श्रावक धर्म-विधि, (2) उपासक प्रतिमाविधि, आदि की चर्चा की गई है। इसी प्रसंग में श्रावक के बारह व्रतों के अतिचारों का भी उल्लेख किया गया है। इस चर्चा के प्रसंग में पंचाशकप्रकरण की टीका में अनेक प्रश्नों को उठाया गया हैं और उनका एक नवीन दृष्टि से समाधान करने का प्रयत्न भी किया गया है। अतः हम कह सकते हैं कि पंचाशक प्रकरण में हरिभद्र ने जो विवरण और व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं, वे मात्र परम्परागत आचार को लेकर नहीं है, अपितु वे अपने युग में उठने वाली तत्सम्बन्धी समस्याओं का समाधान भी प्रस्तुत करती हैं और आज भी प्रासंगिक है।
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का चतुर्थ अध्याय मुनि आचार से सम्बन्धित है। इसमें एक ओर जहां जैन मुनि आचार से सम्बन्धित नियमों की चर्चा है, वहीं दूसरी ओर जिन दीक्षा विधि के प्रसंग में मुनि के द्वारा करणीय कुछ विधि-विधानों की भी चर्चा की गई है। हम यह देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र ने श्रावक-आचार और मुनि-आचार से सम्बन्धित विषयों में आचार के सामान्य सिद्धान्तों के अतिरिक्त उन विधि-विधानों की भी तार्किक समीक्षा भी की है, जो जैन-आचार का ही एक महत्वपूर्ण पक्ष है। वस्तुतः हरिभद्र सिद्धान्त और व्यवहार दोनों के मध्य एक समन्वय करते हुए अपनी विवेचना प्रस्तुत करते हैं। मुनि आचार के सम्बन्ध में पंचाशकप्रकरण में उपलब्ध निम्न विषयों की चर्चा की गई है -
(1) जिनदीक्षाविधि, (2) साधुधर्मविधि, (3) साधु-समाचारी, (4) विधि-विधान विधि, (5) शीलांग विधान विधि, (6) आलोचना विधि, (7) प्रायश्चित् विधि, और (8) भिक्षु प्रतिमा विधि।
__ इसके पश्चात् प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के पंचम अध्याय में आचार्य हरिभद्र द्वारा वर्णित तप सम्बन्धी विधि-विधानों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इसमें प्रमुख रूप से तप के आगमिक एवं परवर्तीकालीन विभिन्न प्रकारों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। क्योंकि
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