Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji

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Page 665
________________ समस्याओं को उठाकर उनके समाधान का भी प्रयत्न किया है। विद्वत्वर्ग और समाज उनकी इस उदारदृष्टि से परिचित हो और आचार्य हरिभद्र की बौद्धिक क्षमता का सम्यक् आकलन करे, यही इस शोधकार्य का मुख्य उद्देश्य रहा है। सामान्यतया शोधकार्यों में परिकल्पना (Hypothesis) की योजना वैज्ञानिक शोधकार्यों में आवश्यक होती है, किन्तु प्रस्तुत शोध मुख्यतः ग्रन्थ आधारित है अतः इस शोधकार्य में शोध परिकल्पना इतनी आवश्यक प्रतीत नहीं होती थी, फिर भी प्रस्तुत प्रसंग में शोध परिकल्पना यही रही है कि आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक प्रकरण में जिन विषयों की विवेचना की है, उनका युक्तिपूर्वक और समकालीन सन्दर्भो में मूल्यांकन करके उनकी उपादेयता पर विचार किया गया है। प्रस्तुत शोधकार्य प्रयोगात्मक न होकर ग्रन्थ आधारित है अतः इसमें तथ्यों का संकलन और विश्लेषण ही प्रमुख नहीं है। इस शोध की प्रविधि यही रही है कि प्रथमतया गवेषणीय इस ग्रन्थ में प्रतिपादित विषयों का हरिभद्र से पूर्ववर्ती ग्रन्थों मे कहाँ और कैसा स्थान रहा है ? हरिभद्र ने उसमें क्या जोड़ा है ? और परवर्ती साहित्य पर उसका क्या प्रभाव रहा है, इसकी ग्रन्थाधारित चर्चा और समीक्षा की गई है और समकालीन परिस्थितियों में उनकी क्या उपादेयता है, इसका सम्यक् प्रकार से मूल्यांकन भी किया जाये। प्रस्तुत अध्ययन को मैंने मुख्य रूप से सात अध्यायों में विभक्त किया है। प्रथम अध्याय में आचार्य हरिभद्र के व्यक्तित्व और कर्तृत्व को विवेचित करने का प्रयत्न किया गया है। इसी प्रसंग में आचार्य हरिभद्र के व्यक्तित्व के वैशिष्ट्य की भी चर्चा की गई है। कर्तृत्व के अन्तर्गत उनकी उपलब्ध रचनाओं की विषयवस्तु पर भी संक्षेप में प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। इसके पश्चात् दूसरे अध्याय में हमने पंचाशक प्रकरण में उपलब्ध मोक्षमार्ग के चार अंगों की चर्चा की है। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशकप्रकरण में सम्यग्दर्शन के अन्तर्गत श्रावक के कर्तव्यों की चर्चा की गई है। इसमें चैत्यवंदन जिनभवननिर्माण, जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, जिनस्तव आदि की भी चर्चा है। 642 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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