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क्रिया के योग से मोक्ष की उपलब्धि होती है केवल क्रिया मोक्ष का कारण नहीं है और न मात्र ज्ञान, दोनों के सम्यक् संयोग से ही साधना के शिखर पर पहुंचा जा सकता है। जैन विधि-विधानों में ज्ञान और क्रिया का सम्यक् रूप में समन्वय देखा जाता है।
विश्व का प्रत्येक पदार्थ ज्ञान और क्रिया द्वारा संचालित है जैसे शरीर के अवयवों के कार्यों से ज्ञात होता है कि आंख से देखो, पांव से चलो, कान से सुनो, मुंह से बोलो। आँख ज्ञान रूप है तो पांव क्रिया रूप है।
शास्त्रों में वर्णित है ज्ञान और क्रिया एक ही रथ के दो पहिये है यदि एक भी पहिया अस्त-व्यस्त हो गया हो तो रथ चलने योग्य नही रह जाता है। इसी तरह ज्ञान और क्रिया में एक भी नहीं है, तो आत्मा रूपी रथ मोक्ष मार्ग पर सम्यक् प्रकार से चल नहीं सकता है।
क्रिया रहित ज्ञान कोरा है, निष्फल है जिस प्रकार पथ का ज्ञाता गति या चलने की क्रिया किये बिना लक्ष्य बिन्दु पर नहीं पहुँच सकता है इसी तरह, शास्त्रों का ज्ञाता, सामायिक प्रतिक्रमण वंदन आदि क्रियाओं के अभाव में मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाता है। इसी हेतु विधि-विधान रूप क्रिया की आवश्यकता है।
आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र के प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र में ज्ञान और क्रिया का महत्व प्रतिपादन किया है। उनका कथन है कि
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः (1/1) अर्थात ये तीनों मिलकर ही मोक्षमार्ग है, कोई भी अकेला मोक्ष मार्ग नही है। -तत्त्वार्थ सूत्र- उमास्वाति- 1/1
गणि समयसुन्दर जी कृत पंचमी के स्तवन की प्रथम ढाल में भी इसी यावार्थ को दर्शाया गया है- किरिया सहित जो ज्ञान तो ही वह प्रधान आवश्यक नियुक्ति में भी यह कहा गया है कि आगमों का ज्ञाता होने पर भी क्रिया को आत्मसात न करने वाला कभी संसार से मुक्त नहीं हो सकता जिस प्रकार चतुर चालाक होने पर भी पतवार के अभाव में नौका से व्यक्ति को सागर से पार तो नहीं ले जा सकता, उसी प्रकार भवसागर से पार होने के लिए ज्ञान और क्रिया अर्थात् विधि-विधान आवश्यक है। आवश्यकनियुक्ति में
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