________________
दिगम्बरपंरपरा में प्रचलित पूजा-विधान में भी अभिषेकपूजा, नित्यपूजा, देवशास्त्रगुरूपूजा, जिनचैत्यपूजा, सिद्धचक्रपूजा आदि के विधान विशेष रूप प्रचलित है। साथ ही उसमे अनेक प्रकार के मण्डल विधान भी होते है। नवग्रहपूजन, पाटलापूजन आदि भी दोनों में प्रचलित है। क्षेत्रपाल के रूप में भैरवपूजन एवं पद्मावतीपूजन भी दोनो ही परम्पराओं में प्रचलित हैं ।
साधुओं से सम्बन्धित जो विधि-विधान कहे गये है उनमें से देववन्दनविधि, गुरूवन्दनविधि, चैत्यवन्दनविधि, प्रतिक्रमणविधि, सज्झायविधि, रात्रिसन्थाराविधि, उपधि एवं वस्त्रपात्र प्रतिलेखनविधि, आहारचर्याविधि, आलोचनाविधि, मांडलाविधि, आदि श्वेताम्बर परम्परा में विशेष रुप से प्रचलित हैं । दिगम्बरपरंपरा में इन विधानों में से प्रतिक्रमणविधि, आहारचर्याविधि, आलोचनविधि आदि ही विशेष रूप से प्रचलित है ।
यह कहा जा सकता है कि जैन परम्परा में विधि-विधानों का बाहुल्य है, इस अपेक्षा से यह सिद्ध होता है कि जैन धर्म अध्यात्मप्रधान और साधना प्ररक होते हुए भी उससे विधि-विधानों का स्थान रहा हुआ है ।
अति प्राचीन स्तर के आगमों एवं आगमतुल्यग्रन्थों को छोड दें, तो भी लगभग ईस्वी पूर्व से ही जैन परम्परा में विधि-विधान सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना होती रही है इस सब में भी आचार्य हरिभद्रकृत पंचाशक प्रकरण का विशेष महत्व रहा हुआ है। उसमें उन्नीस पंचाशकों में उन्नीस प्रकार के विधि-विधानों की चर्चा हुई है ।
विधि-विधानों की आवश्यकता क्यों ?
जैन परम्परा में विधि विधानो की आवश्यकता क्रिया या आचरण को सम्यक् स्वरूप प्रदान करने के लिए मानी गई है।
सम्यक् क्रिया व सम्यक् आचरण के अभाव में किसी भी विधि-विधान का महत्त्व नहीं है। सम्यक् आचरण से शून्य क्रिया विषतुल्य मानी जाती है । सम्यक् क्रिया ही फलदायी होती है। शास्त्रों में सकेंत है कि "ज्ञान क्रियाम्यां मोक्षः" अर्थात ज्ञान और
646
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org