Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji

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Page 651
________________ मूलायार (मूलाचार) वट्टकेराचार्य लगभग 6 टी शती बृहद्कल्पभाष्य संघदासगणि 6 टी शती व्यवहारभाष्य संघदासगणि 6 टी शती भगवती-आराहणा पणितलमोजीशिवार्य 6 टी शती निशीथचूर्णी जिनदासगणि महत्तर लगभग 7 वीं शती महानिशीथसूत्र उद्धारक - आ.हरिभद्र (प्र.) 8 वीं शती दशवैकालिकचूर्णी जिनदासगणि महत्तर लगभग 7 वीं शती साधुदैनकृत्य आ.हरिभद्र 8 वीं शती पंचवस्तुक हरिभद्र 8 वीं शती पिण्डविशुद्धि प्रकरण जिनवल्लभगणि 12 वीं शती समाचारी तिलकाचार्य 13 वीं शती साधुविधिप्रकाश प्रकरण उपा. क्षमाकल्याण 16 वीं शती प्रवचन सारोद्धार वि.सं. 1216 सद्रढ़जीयकप्पो (श्राद्धजीयकल्प) धर्मघोषसूरि वि.सं. 1357 विधिमार्गप्रपा जिनप्रभसूरि वि.सं. 1365 यतिसमाचारी भावदेवसूरि वि.सं. 1492 आवश्यकीयविधिसंग्रह स. बुद्धिसागर 20 वीं शती श्रमण-आवश्यक सूत्र संकलित 20 वीं शती शीलांग विधि पंचाशक - साधुचर्या से सम्बन्धित ही यह विधान भी है। इन शीलांगों के पालन के बिना साधु पूर्णतः साधु कहलाने योग्य नहीं है। इस शीलांगों का वर्णन अनेक आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में शास्त्रानुसार किया है। उनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का विवरण इस प्रकार है, किन्तु ज्ञातव्य है ये प्राचीन ग्रन्थ कुछ शीलांगों का ही विवेचन करते हैं - कृति कृतिकार कृतिकाल नेमिचन्द्रसूरि 14. 629 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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