Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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समवसरण-तप- समवसरण-तप करने पर कालान्तर में समवसरण में देशना श्रवण करने का सौभाग्य प्राप्त होता है तथा परम्परा से देशना श्रवण से मुक्ति-वरण का परम सौभाग्य प्राप्त होता है।
प्रस्तुत तप चौंसठ दिन में पूर्ण होता है। जिसे चार वर्ष में पूर्ण करते हैं। यह तप भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को पूर्ण करने का विधान है। यह तप सोलह दिनों में पूर्ण होता है। निरुजशिख-तप- आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत तपोविधि-पंचाशक की बत्तीसवीं गाथा में निरुजशिखर-तप का वर्णन किया है
___निरुज अर्थात् निरोग तथा शिख अर्थात् शिखा (चोटी)। आरोग्य जिसकी शिखा है, चोटी है, ऐसा निरुजशिख-तप करने वाला आरोग्य को प्राप्त करता है। इस तप की विधि सर्वांगसुन्दर-तपवत् ही है, परन्तु इस तप को शुक्ल पक्ष में न करते हुए कृ ष्णपक्ष में करने का विधान है। परमभूषण-तप- परम अर्थात् सर्वश्रेष्ठ तथा भूषण अर्थात् आभूषण, अर्थात् जिस तप के द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप सर्वश्रेष्ठ आभूषण की प्राप्ति होती है, वह परमभूषण-तप है। प्रस्तुत तप की विधि आचार्य हरिभद्र तपोविधिापंचाशक की तैंतीसवीं गाथा में' बताते हैं
एक-एक दिन के अन्तर से बत्तीस निर्दोष आयम्बिल करना चाहिए और जिन-प्रतिमा को तिलक, आभूषण आदि चढ़ाना चाहिए। आयतिजनक-तप- आयति अर्थात् आने वाला कल, जनक, अर्थात् युक्त। इस तप के द्वारा व्यक्ति आने वाले समय में बल, वीर्य आदि से युक्त होता है। आचार्य हरिभद्र तपोविधि-पंचाशक की चौंतीसवीं गाथा में प्रस्तुत तप की विधि का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 19/32 ' पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 19/33 - * पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 19/34
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