Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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समाहिवरमुत्तमंदिंतु’– अर्थात् मोक्ष, मोक्ष का कारण, बोधिलाभ और बोधिलाभ का कारण उत्कृ ट समाधि–समता दें- ऐसी मांग समत्व से युक्त होने से उचित है और निदान - रहित है।
भावशुद्धि से तप करने का उपदेश - आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक - प्रकरण के अन्तर्गत् तपोविधि7पंचाशक की चंवालीसवीं गाथा में यह निर्देश दिया है कि जो भी तप करें, वे सारे तप भावशुद्धियुक्त करना चाहिए। चूंकि ये तप आगमसम्मत हैं, निदान -रहित हैं और विशुद्ध तप हैं, अतः आचार्य का कथन है कि इस तप को श्रद्धा एवं शुद्धिपूर्वक करना चाहिए, जिससे ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का नाश होकर यह तप 'भवविरह' का कारण बने, अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है।
तविधि में जिन - शासन में वर्णित बाह्य एवं आन्तरिक - तपों का योगदान व्यष्टि के लिए ही नहीं, अपितु समष्टि के लिए महत्वपूर्ण है । यह तपस्या केवल जैनों को ही सत्य का मार्ग नहीं बताती है, अपितु सर्व धर्मों को सत्य की राह दिखाती है।
यह तपस्या संकट के समय जैनों के लिए उपयोगी सिद्ध होती है, तो यह तपस्या विश्व में अन्न - संकट की समस्या में भी उपयोगी सिद्ध है । आज डॉक्टर शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए जैनधर्म की तपस्या की उपयोगिता को सिद्ध कर चुके हैं कि यदि कोई भी जैनधर्म की तपस्या के अनुसार दैनिक - चर्या निर्धारित करता है, तो वह कभी भी अस्वस्थ्य नहीं होगा, क्योंकि जैनधर्म की तपस्या पूर्णतः सफल है।
प्राकृतिक चिकित्सा-प्रणाली तो अनेक व्याधियों की चिकित्सा केवल उपवास से ही मानती है।
आयुर्वेदिक - शास्त्र के अनुसार, शरीर स्वस्थ्य रखना है, तो सात-सात दिनों के अन्तर में लंघन करना ही चाहिए और यह लंघन ही उपवास है।
इसी प्रकार, ऊनोदरी- तप अर्थात् अल्प मात्रा में आहार करना भी स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभप्रद है, क्योंकि अधिक भोजन लीवर को खराब करता है और जिसका लीवर खराब है, उस पर कभी भी किसी भी रोग का आक्रमण हो सकता है, अतः ऊनोदरी-तप की उपयोगिता सिद्ध होती है कि स्वास्थ्य के लिए अल्प भोजन
1 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 19/44 - पृ. 350
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