Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji

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Page 623
________________ से ग्रसित होने का तात्पर्य है- रक्तचाप आदि बीमारियों को निमन्त्रण देना, अतः विकारों एवं रोगों की रोकथाम के लिए लीनता-तप आज के युग में अत्यन्त आवश्यक है। आभ्यन्तर-तप के भेद में प्रायश्चित्त-तप का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रायश्चित्त से तात्पर्य है- अपनी भूलों का पश्चाताप करना, आलोचना करना, क्षमा मांगना, शिष्य से कोई भी भूल हो जाए, तो शीघ्र ही उसे गुरु के सम्मुख प्रकट कर क्षमा याचना करना है। वर्तमान में इस तप की अत्यन्त आवश्यकता है। व्यक्ति भूलों का पिटारा न बन जाए, अतः भूल होते ही प्रायश्चित्त कर ले। विद्यालयों में जो यह शिक्षा दी जाती है कि गलती होने पर 'सॉरी' कहो, अर्थात् गलती के लिए क्षमा मांग लेना चाहिए। 'सॉरी' कहना यह अहसास करवाता है कि मेरी भूल हो गई, मुझे क्षमा याचना कर लेना चाहिए, मुझे इस प्रकार की भूल नहीं करना चाहिए। विनय, वैयावच्च- दोनों का पारिवारिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिकदृष्टिकोण से मूल्य रहा है। जिस व्यक्ति में विनय, वैयावच्य एवं स्वाध्याय के भाव हैं, वहाँ कलह, द्वेष, अशान्ति का पूर्णतः अभाव है। वर्तमान की शिक्षा प्रणाली में इन तीनों तपों को स्थान मिलना चाहिए। ___ ध्यान और कायोत्सर्ग का स्वास्थ्य की दृष्टि एवं साधना की दृष्टि से पूर्णतः महत्वपूर्ण स्थान है। इन दोनों आभ्यन्तर-तप से अनेक प्रकार की आधि-व्याधि और उपाधि का निवारण होता है, क्लेश, मनमुटाव, तनाव आदि की ग्रन्थियाँ टूटकर नष्ट हो जाती है। वर्तमान में योगाभ्यास, विपश्यना, प्रेक्षाध्यान, सहजयोग आदि ध्यान और कायोत्सर्ग के ही रूपान्तरण हैं। इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि जैनधर्म की तपस्या, शरीर और मन- दोनों से ही की जाती है। वह शरीर एवं इन्द्रियों को कष्ट देने के लिए नहीं है, अपितु इनकी दूषित वृत्तियों का शोषण कर शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए ही की जाती है। तप का स्थान- जैन-संस्कृति में तप का महत्वपूर्ण स्थान है। तप श्रमण-संस्कृति का प्राणतत्त्व है, तप साधना की आधारशिला है। तप साधना की शक्ति है। दशवैकालिक-सूत्र के प्रथम अध्याय की प्रथम गाथा की प्रथम पंक्ति में धर्म के 602 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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