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यह सत्य है कि मरने के पश्चात् ही काया का त्याग किया जाता है, परन्तु यहाँ जीवित ही काया का त्याग करने का अर्थ है कि जब तक मैं ध्यान में हूँ, तब तक काया का त्याग करता हूँ, क्योंकि यह काया अशुचि है, अस्थिर है, अनित्य है, वीभत्स है, परिवर्तनशील है, मल-मूत्र आदि दोषों से युक्त है। इस शरीर के प्रति ममत्व रखना व्यर्थ है, क्योंकि शरीर का मोह दुःख की जड़ है। इस प्रकार के चिन्तन से शरीर की वास्तविकता का बोध होता है। कायोत्सर्ग आदि के समय शरीर का त्याग किया जाता है। कि यह शरीर मेरा नहीं है, शरीर नित्य नहीं है, शरीर शाश्वत नहीं है, शरीर भिन्न है । प्रश्न है कि शरीर के रहते शरीर को त्याग करने पर यह कैसे अनुभव किया जा सकता है कि शरीर मेरा नहीं है । जो वस्तु मेरी है, उसे तो मानना ही पड़ेगा ? व्यक्ति प्रत्येक वस्तु को 'मेरा' मानता है- ऐसा नहीं है। त्याग करने के पश्चात् पदार्थ व्यक्ति के सान्निध्य या अधिकार में होते हुए भी वह उन्हें अपना नहीं मानता है। उसके प्रति ममत्व नहीं रखता है, जैसे- टेलीविजन पर मोह छंट गया, ममत्व कम हो गया, अर्थात् टी.वी. देखने का त्याग कर दिया, तो घर पर टी. वी. होते हुए भी अपने लिए त्याग ही है। कपड़ों पर मोह कम हो गया, अर्थात् जिस कपड़े से उब गए, घृणा उत्पन्न हो गई, तो कपड़े के होते हुए भी हमारे लिए त्याग ही है। पति द्वारा पत्नी का त्याग कर दिया गया, तो घर में होते हुए भी उसके लिए त्याग है, अर्थात् किसी भी वस्तु के प्रति अप्रीति हो गई, अनादर हो गया, घृणा हो गई, तो वह उसके लिए त्यक्त ही होती है । इसी प्रकार जब काया से मोह नहीं होता, ममत्व नहीं होता, अपनेपन का भाव नहीं रहता, तब काया होते हुए भी त्यक्त ही हैं ।
इन आभ्यन्तर- तपों में मन की मुख्यता होने के कारण वे बाहर से तपरूप में ज्ञात नहीं हो पाते हैं, इस कारण इन तपों को आभ्यन्तार- तप कहा जाता है। वैसे तो पता चलता है कि प्रायश्चित्त ले रहा है, विनय कर रहा है, वैयावृत्य कर रहा है, स्वाध्याय कर रहा है, ध्यान कर रहा है, व्युत्सर्ग कर रहा है, परन्तु इसमें खाद्य आदि पदार्थों के त्याग करने का कोई निर्देश नहीं है। यहाँ प्रत्येक तप मन के द्वारा होता है, इस कारण इन्हें आभ्यन्तर -तप कहा गया है।
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