Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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तप का लौकिक एवं आध्यात्मिक-प्रयोजन- कई बाल जीव प्रारम्भ में तप इसलिए ही करते हैं कि संसार के सुख प्राप्त हों, अर्थात् बहुत धन मिले, पति का सुख मिले, पुत्र अनुकूल मिले, लोग सम्मान दें, मेरा कहा हुआ लोग मानें, मेरी चारों ओर प्रसिद्धि हो- ऐसी कामनाओं से अधिकांश लोग तप करते हैं, परन्तु इस प्रकार की कामना से तप करते-करते भी अधिकांश लोग संसार की कामनाओं से रहित हो जाते हैं, अर्थात् सत्य की ओर, मोक्ष की ओर उनकी गति प्रारम्भ हो जाती है, अतः किसी अपेक्षा से इस प्रकार का तप भी मान्य हो जाता है।
इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत तपोविधि-पंचाशक की सत्ताइसवी से लेकर उनतीसवीं तक की गाथाओं में' कहते हैं
कुशल अनुष्ठानों में किसी प्रकार का विघ्न उत्पन्न न हो, इसके लिए साधर्मिक-देवताओं की तपरूप आराधना से और कषाय-निरोध आदि के द्वारा तप से मार्गानुरूपी भाव (मोक्षमार्ग के अनुकूल भाव) पाकर बहुत से पुण्यशाली भव्य जीवों ने आप्तपुरुषों के द्वारा प्रतिपादित चारित्र-रत्न को प्राप्त किया।
उपर्युक्त लिखित तपों के अतिरिक्त अन्य कुछ आचार्यों ने भी अपने भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में अलग-अलग प्रकार के तपों के विषय में विवेचन किया है, जैसेसर्वांगसुन्दर-तप, निरुजशिख-तप, परमभूषण-तप, आयतिजनक-तप और सौभाग्यकल्पवृक्ष-तप आदि भिन्न-भिन्न प्रकार के तपों का विवेचन किया है। ये सभी तप भी जिनशासन में नव-प्रविष्ट जीवों की योग्यता के अनुसार मोक्षमार्ग स्वीकार करने के कारण हैं। चूंकि कोई जीव ऐसा भी हो सकता है, जो प्रारम्भ में अभिष्वंग, अर्थात् संसार-सुख की इच्छा से जिनधर्म में प्रवृत्त होता है, किन्तु बाद में अभिष्वंगरहित, अर्थात् लौकिक-आकांक्षाओं से रहित होकर मोक्षमार्ग की इच्छा वाला बन जाता है, इसलिए ऐसे जीवों के लिए यह तप मोक्ष प्राप्त करने वाला बनता है।
जिस तप से सभी अंग सुन्दर बनें, वह सर्वांगसुन्दर-तप है। इसी प्रकार, जिससे रोग नष्ट होते हैं, वह निरुजशिख-तप है, जिससे उत्तम आभूषण मिलते हैं, वह
| पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 19/27 से 29 - पृ. - 344
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