Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
View full book text
________________
(2) वजमध्या- कृष्णपक्ष में प्रतिपदा के दिन पन्द्रह कौर का आहार ग्रहण करना, द्वितीया के दिन चौदह कवल का आहार ग्रहण करना- इस प्रकार क्रमशः प्रत्येक दिन कौर की संख्या को घटाते जाना और अमावस्या के दिन एक कौर के बराबर आहार ग्रहण करना, पश्चात् एकम को एक कवल आहार ग्रहण करते हुए क्रमशः प्रतिदिन आहार के कौर की वृद्धि करते हुए पूर्णिमा के दिन पन्द्रह कौर के बराबर आहार ग्रहण करने को वज्रमध्या प्रतिमातप कहते हैं। मिक्षा और कौर-परिमाण- आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत् तपोविधि-पंचाशक की इक्कीसवीं गाथा में भिक्षा के कवल के परिमाण की चर्चा करते हुए कहते हैं
___ एक बार में जितना भोजन पात्र में डाला जाए, वह एक दत्ति कहलाती है और एक दत्ति एक भिक्षा कहलाती है। पात्र में एक बार डाला गया भोजन, चाहे वह अल्प हो या अधिक, एक द्रव्य हो या अनेक द्रव्यों से युक्त हो, तो भी एक दत्ति, अर्थात् एक भिक्षा कहलाती है, जबकि कौर (ग्रास) का परिमाण कुक्कड़ के अण्डे के आकार के बराबर माना जाता है। दत्ति और कौर में यही अन्तर है।
__इस प्रकार के तप से सफलता किसे प्राप्त हो सकती है, इसकी चर्चा पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत तपोविधि-पंचाशक की बाईसवीं गाथा में की गई है
निर्दोष क्रिया, विशुद्ध भाव, महारम्भ कलहरूप अधिकरण (शस्त्र) से रहित होकर साधु के द्वारा विधिपूर्वक किया गया यह तप सार्थक होता है, अर्थात् मोक्षफलदायक होता है, अन्य प्रकार से किया गया इस प्रकार का तप उतना फलदायी नहीं होता है। रोहिणी आदि विविध तपों का निर्देश- रोहिणी आदि से तात्पर्य है- देवता, अर्थात् देवताओं की आराधना करना। इस आराधना की क्रम-विधि एवं फल की आचार्य
'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 19/21 - पृ. -342 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 19/22 - पृ. - 342
590
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org