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सारपूर्ण विवरण आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के साधुसामाचारी-विधि पंचाशक की चंवालीसवीं गाथा में किया है। (1) सन्दिष्ट: सन्दिष्टस्य- गुरु की आज्ञा से गुरु द्वारा निर्दिष्ट आचार्य के पास जाना। (2) सन्दिष्टोऽसन्दिष्टस्य- गुरु की आज्ञा से गुरु द्वारा निर्दिष्ट आचार्य के अलावा अन्य आचार्य के पास जाना। (3) असन्दिष्टोसन्दिष्टस्य- गुरु द्वारा निर्दिष्ट आचार्य के पास गुरु की आज्ञा के बिना जाना, अर्थात् गुरु ने कुछ समय के लिए जाने से मना किया हो, फिर भी जाना । (4) असन्दिष्टोऽसन्दिष्टस्य- गुरु की आज्ञा के बिना गुरु द्वारा निर्दिष्ट आचार्य के अतिरिक्त अन्य आचार्य के पास जाना।
इसमें प्रथम विकल्प शुद्ध है, क्योंकि इससे श्रुतज्ञान का विच्छेद नहीं होता
परावर्तन आदि पदों का अर्थ- आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत अध्याय की पैंतालीसवीं तथा छियालीसवीं गाथाओं में उपसम्पदा के भेदों के परावर्तन आदि भेदों की व्याख्या की
है।
पूर्वअधीत श्रुत के विस्मृत हो जाने पर पुनः याद करना ‘परावर्तना' है। पहले अध्ययन किए हुए ग्रन्थ का कोई भाग यदि विस्मृत हो गया हो, या अध्ययन करते समय कोई भाग छूट गया हो, तो उसका फिर से अध्ययन करके उसे उस श्रुत के साथ जोड़ देना 'अनुसन्धान' है।
जिसका अध्ययन नहीं किया हो- ऐसे नए श्रुतज्ञान या दर्शन-प्रभावक ग्रन्थों का सूत्र, अर्थ या सूत्रार्थपूर्वक अध्ययन करना 'ग्रहण' है। चारित्र के वैयावृत्य-सम्बन्धी और तप-सम्बन्धी- ये दो भेद हैं।
'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/44- पृ. - 216 * पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/45, 46 - पृ. - 217
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