Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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3. अविमुक्ति- आहारादि की लोलुपता के कारण साधु द्वारा शय्यातर के घर बार-बार जाना (घर न छोड़ना) अविमुक्ति-दोष है। इससे उसे साधु की लोभवृत्ति का परिचय मिलता है। 4. अलाघवता (भार)- विशिष्ट आहार लेने से शरीर का पुष्ट होकर भारी हो जाना अलाघवता है। उपधि आदि के मिलने से भार बढ़ जाता है। पुनः, उस गृहस्थ को वे साधु भारस्वरूप लगने लगते है, जैसे- अरे ! इन्हें मकान तो दिया ही, अब इनके भोजन आदि की व्यवस्था करो। 5. दुर्लभशय्या- जिन्हें आश्रय देना है, उन्हें आहार भी देना पड़ेगा- ऐसा भय उत्पन्न होने से गृहस्थ साधुओं को आश्रयस्थल देने से भी कतराते हैं। 6. व्यवच्छेद- अधिक मकान होंगे, तो साधुओं को देना पड़ेंगे- इस भय से अधिक मकान न रखना भी आवास-व्यवच्छेदरूप दोष है, साथ ही, 'इन्हें आश्रयस्थल देने पर भोजन भी देना होगा'- इस भय से गृहस्थ उन्हें आश्रय देना बंद कर देता है, यह भी आवास-व्यवच्छेद है।
सूत्रकृतांग में इसे 'सागरिय-पिण्ड' भी कहा गया है।'
कल्पसूत्रटीका में कहा गया है कि वसति-स्थान देने वाले के घर का आहार-पानी लेना कल्प्य नहीं है।'
निशीथभाष्य में शय्यातर से तात्पर्य श्रमण को शय्या (वसतिका) आदि देने से संसार-समुद्र को तैरने वाला कहा है। उसके यहाँ का अशन, पान, खाद्य, स्वाद्यादि आहार तथा अन्य वस्तुओं को अकल्पनीय कहा है। अन्य मत - आचार्य हरिभद्र स्थितास्थितकल्पविधि की उन्नीसवीं गाथा में इस सम्बन्ध में कुछ आचार्यों के मतों का कथन करते हैं, जो इस प्रकार है
। सूत्रकृतांग -1/9/16
कल्पद्रुमकलिकाटीका - उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभगणि - पृ. - 3 3 निशीथ-भाष्य - गाथा- 11/51-54 4 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 17/19 - पृ. - 300 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 17/20 - पृ. - 300
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