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आचार्य हरिभद्र ने भिक्षुप्रतिमा-कल्पविधि-पंचाशक की तीसवीं, एकतीसवीं एवं बत्तीसवीं गाथाओं में यह स्पष्ट किया है
जब गच्छ में किसी बहुश्रुत साधु के होने से सूत्रार्थ की वृद्धि हो रही हो और प्रतिमाकल्प स्वीकार करने वाले साधु में दशपूर्व से अधिक श्रुत पढ़ाने की शक्ति न हो, गच्छ में बालवृद्ध, रोगी आदि न होने से गच्छ बाधारहित हो, अथवा बालवृद्ध आदि की सेवा करने वाले हों तथा आचार्यादि गच्छ के पालन में तत्पर हों, कोई नवीन दीक्षा लेने वाला न हो, उस समय ही प्रतिमाकल्प को स्वीकार किया जा सकता है, अन्यथा पूर्वोक्त संहनन, धृति आदि योग्यता होने पर भी प्रतिमाकल्प को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार, यह प्रतिमाकल्प गुरु-लाघव की विचारणा से रहित नहीं है।
गच्छ में सूत्रवृद्धि न हो रही हो, अन्य कोई पढ़ने वाला न हो, फिर भी कोई प्रतिमाकल्प को स्वीकार करे, तो श्रुतगौरव नहीं होगा। श्रुतगौरव के अभाव में सम्पूर्ण दशपूर्वधर को भी प्रतिमाकल्प की साधना करने का निषेध किया गया है (यदि श्रुतगौरव की आवश्यकता नहीं होती, तो दशपूर्वघर के लिए भी प्रतिमाकल्प का निषेध नहीं किया जाता)। दशपूर्वधर श्रुतदान, प्रवचन आदि में उपकारी होते हैं, इसलिए गच्छ में वैसा कोई दूसरा व्यक्ति न हो, तब तक उनके लिए प्रतिमाकल्प का निषेध है। इस प्रकार, गुरु-लाघव (लाभालाभ) की विचारणा की अपेक्षा से ही प्रतिमाकल्प में दशपूर्वधर के लिए भी प्रतिमाकल्प का जो निषेध किया गया है, वह युक्तिसंगत है।
जिस विचारणा में थोड़े लाभ का त्याग करने से अधिक लाभ होता हो, ऐसी गुरु-लाघव की विचारणा न्यायसंगत है। चूंकि ऐसी विचारणा प्रतिमाकल्प में है, इसलिए प्रतिमाकल्प गुरु-लाघव की विचारणा से रहित नहीं है।
___ प्रतिमाकल्प स्वीकार करने से पूर्व प्रतिमा धारण का इच्छुक गुरु-लाघव की विचारणा अवश्य करे, क्योंकि गच्छ का गौरव, श्रुत का गौरव, वैय्यावच्च, सूत्रार्थ-दान आदि का महत्वपूर्ण एवं प्रथम स्थान है। यदि अन्य साधु इन कार्यभार को सम्भालने वाले हों, तब प्रतिमाधारण का इच्छुक प्रतिमा ग्रहण करे, तो वह न तो गच्छ की उपेक्षा करने
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