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है । यद्यपि पंचाशक - प्रकरण में आचार्य हरिभद्र ने तप के अर्थ एवं स्वरूप की चर्चा विस्तृत रूप में नहीं की है, किन्तु तपोविधि - पंचाशक की छब्बीसवीं गाथा में इतना अवश्य कहा है कि जिसमें कषाय का निरोध हो, ब्रह्मचर्य का पालन हो, जिनेन्द्रदेव की उपासना हो और भोजन आदि की लालसा का त्याग हो, वे सभी तप कहलाते हैं ।
हरिभद्र की स्पष्ट मान्यता है कि जो तप मोक्षार्थ तप है, वही वास्तविक तप है। यद्यपि संसार में लौकिक - उपलब्धियों के लिए तप की परम्परा रही है।
आचार्य हरिभद्र इस परम्परा का विरोध तो नहीं करते हैं, किन्तु इतना अवश्य कहते हैं कि कुशल अनुष्ठानों में विघ्न न आए - इसके लिए साधर्मिक देवताओं की तप के माध्यम से आराधना की जाती है। वह भी कषाय आदि निरोधरूप तथा मार्गानुसारी गुणों की प्राप्तिरूप होने से किसी सीमा तक ग्राह्य है।
इस प्रकार, हम इस निष्कर्ष तक पहुँचते हैं कि आचार्य हरिभद्र की दृष्टि में तप का मुख्य उद्देश्य तो कषाय-निरोध और आत्म-विशुद्धि ही है, किन्तु वे सभी तप, जो व्यक्ति को मार्गानुसारी गुणों, अर्थात् मोक्षमार्ग के अनुकूल भावों की दिशा में ले जाते हैं, वे भी किसी सीमा तक तप की कोटि में आते हैं। यही कारण है कि तपोविधि - पंचाशक में आचार्य हरिभद्र ने जहाँ एक ओर आगमिक - परम्परा का अनुसरण करते हुए आभ्यन्तर-तप, बाह्य-तप और उनके प्रकारों की चर्चा की, वहीं दूसरी ओर, लौकिक- परम्परा में मान्य, अथवा भौतिक और दैहिक - कल्याणकों से सम्बंधित तपों की भी चर्चा की है, जैसे- सर्वांगसुंदर -तप, निकजशिख - तप आदि, फिर भी, हरिभद्र इतना अवश्य कहते हैं कि आगम-सम्मत, निदान - रहित और भावविशुद्धिपूर्वक किया गया तप ही सार्थक तप है, फिर वह तप चाहे आभ्यन्तर हो, या बाह्य हो, उसे अपने मूल लक्ष्यआत्मविशुद्धि के साथ योजित अवश्य रहना चाहिए। इस पंचाशक - प्रकरण में वे सर्वप्रथम बाह्य-तप और आभ्यन्तर - तपों के स्वरूप को बताते हुए तत्सम्बन्धी विधि का निरूपण करते हैं। उसके पश्चात, प्रकीर्ण तपों के रूप में तीर्थकरों के कल्याणकों से सम्बन्धित, तपों की तथा चान्द्रायण आदि लौकिक - तपों की चर्चा करते हैं । तपविधि-पंचाशक में उन्होंने इन तपों का जिस रूप में वर्गीकरण करके उनके स्वरूप को स्पष्ट किया है, हम भी उस रूप में यहाँ उनकी चर्चा करेंगे ।
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