Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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तप के दो प्रकार आचार्य हरिभद्र तपोविधि का विवेचन करने के पूर्व अपने इष्ट को प्रणाम करके मंगलाचरणस्वरूप तपोविधि-पंचाशक की पहली गाथा में' कहते हैं
मैं भगवान् महावीर स्वामी को नमस्कार करके अपने और दूसरों के उपकार हेतु आगमोक्त विधि के अनुसार तप का संक्षेप में वर्णन करूंगा।
. आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण में तप के स्वरूप की विशेष चर्चा न करते हुए अपनी बात तप के प्रकारों की चर्चा से प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम वे बाह्य-तप
और आन्तरिक-तप की चर्चा करते हैं। मुख्यरूप से तप के दो भेद हैं1. बाह्य-तप और 2. आन्तरिक-तप।
दोनों तप का अपने-अपने स्थान पर महत्व है, परन्तु बाह्य-तप के साथ आन्तरिक-तप का होना अनिवार्य है। आन्तरिक-तप के साथ बाह्य-तप नहीं होगा, तो चलेगा, क्योंकि बाह्य-तप में मुख्यता पांच इन्द्रियों की होती है और आन्तरिक-तप में मुख्यता मन की होती है।
प्रश्न उपस्थित होता है कि जब बन्ध और मुक्ति में मन की मुख्यता है और तप बन्धन से मुक्ति के लिए है, तो फिर आभ्यन्तर-तप ही करना चाहिए, बाह्य-तप क्यों करें?
बाह्य-तप करने का विधान इस कारण है कि आभ्यन्तर-तप में बाह्य-तप सहयोगी बनता है। इन्द्रियों का नियन्त्रण बाह्य-तप के द्वारा ही होता है और इन्द्रियों के अनियन्त्रित होने पर मन नियन्त्रित ही नहीं हा सकता है, अतः आन्तरिक-तप के साथ बाह्य-तप भी आवश्यक है।
जिस तप में मन जुड़ जाता है, उसमें इन्द्रियों को बलात् जोड़ने की आवश्यकता नहीं होती है, बल्कि वे स्वतः जुड़ जाती हैं, परन्तु जहाँ मन नहीं जुड़ा है, किन्तु इन्द्रियाँ जुड़ गईं, वहाँ मन को जोड़ने के लिए प्रयत्न करना आवश्यक होता है, अतः बाह्य-तप के द्वारा इन्द्रियों के साथ मन को जीतने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 19/1 - पृ. - 333
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