Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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स्वीकार किया है, वह कायिक–पीड़ा के होते हुए भी मानसिक–पीड़ा का अनुभव क्यों करेगा ?
प्रश्न किया गया कि प्रतिमाकल्प से विभिन्न कर्मों का क्षय होता हैइसका क्या प्रमाण है, अथवा इसे कैसे जाना जा सकता है ? प्रस्तुत प्रश्न का समाधान आचार्य हरिभद्र ने भिक्षुप्रतिमा-कल्पविधि-पंचाशक की बयालीसवीं गाथा में किया है।
यदि प्रतिमाकल्प के बिना ही विचित्र कर्मों का क्षय होता हो, तो आगम का यह कथन कि स्थविरकल्प के कर्तव्यों के पूर्ण होने के बाद प्रतिमाकल्प को स्वीकार करना चाहिए, असंगत हो जाएगा। इस आगमिक-कथन से प्रतिमाकल्प की आवश्यकता सिद्ध होती है। स्थविरकल्प के अनुष्ठान पूर्ण होने पर प्रतिमाकल्प को स्वीकार करनायह आप्तवचन है, इसलिए प्रतिमाकल्प को, कर्मक्षय का कारण है- ऐसा जानना चाहिए। प्रतिमाकल्प की परमार्थ-रहितता का मतान्तर से निराकरण- प्रतिमाकल्प आचरण के योग्य है, क्योंकि श्रेष्ठ अनुष्ठान है और विहित अनुष्ठान सदा करने योग्य ही होते हैं। वे सरल और कठिन हो सकते हैं, परन्तु हेय नहीं होते, उपादेय ही होते हैं। आचार्य हरिभद्र का इस विषय में यह मत है कि अन्य आचार्य भी प्रतिमाकल्प की पुष्टि करते हैं। इसका संकेत आचार्य हरिभद्र ने भिक्षुप्रतिमा- कल्पविधि-पंचाशक की तिरालीसवीं गाथा में किया है
दूसरे कुछ आचार्य भी कहते हैं कि आगम में यह प्रतिमाकल्प स्थविरकल्प की अपेक्षा दुष्कर कहा गया है, इसलिए यह विहितानुष्ठान है और विहितानुष्ठान होने से आचरणीय है।
प्रस्तुत मत का स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य हरिभद्र भिक्षुप्रतिमा कल्पविधि पंचाशक की चंवालीसवीं गाथा में कहते हैं
प्रतिमाकल्प उचित एवं आगम-विहित अनुष्ठान है, क्योंकि जो कथन युक्ति से बाधित एवं अनुचित हो, वह आगमविहित नहीं होता है। पुनः, जिसके कथन
1 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 18/42 - पृ. सं. - 329 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 18/43 - पृ. - 330 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 18/44 - पृ. सं. - 330
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